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कितना ऊँचा होता है महापुरुषों का उद्देश्य !


एक बार स्वामी दयानन्द सरस्वती अमृतसर में सरदार भगवान सिंह के मकान में ठहरे थे। एक दिन 7-8 घमंडी लोग अपने साथियों सहित दयानंद जी से शास्त्रार्थ करने आये और अकड़कर उनके सम्मुख बैठ गये। उन्हें शास्त्रार्थ तो क्या करना था, उनके साथियों ने धूल व ईंट-पत्थर फेंकने आरम्भ कर दिये। ऋषि दयानंद के इस अपमान को देखकर भक्तजन कुपित हो उठे। उन्हें शांत करते हुए दयानंद जी ने कहाः “मदरूपी मदिरा से उन्मत्त जनों पर कोप नहीं करना चाहिए। हमारा काम एक वैद्य का है। उन्मत्त मनुष्य को वैद्य औषध देता है निश्चय जानिये, आज जो लोग मुझ पर ईंट, पत्थर और धूर बरसा रहे हैं, वे ही पछताकर कभी पुष्प-वर्षा करने लग जायेंगे।”

जब दयानंद जी अपने डेरे पर पधारे तो एक भक्त ने कहाः “महाराज ! आज दुष्ट लोगों ने आप पर बहुत धूल-राख फेंकी, आपका घोर अपमान किया।”

दयानंद जी ने कहाः “परोपकार और परहित करते समय अपने मान-अपमान की चिंता और परायी निंदा का परित्याग करना ही पड़ता है। इसके बिना सुधार नहीं हो सकता। मेरी अवस्था एक माली जैसी है। पौधों में खाद डालते समय राख और मिट्टी माली के सिर पर भी पड़ जाया करती है। मुझ पर धूर-राख चाहे जितनी पड़े, मुझे इसकी कुछ भी चिंता नहीं परंतु वाटिका हरी-भरी बनी रहे और निर्विघ्न फूले-फले।”

कैसा होता है महापुरुषों का हृदय ! कितना ऊँचा होता है उनका उद्देश्य ! आज भी ऐसे महापुरुष धरती पर विद्यमान हैं, तभी यह धरती टिकी है। ऐसे महापुरुष अपनी चिंता नहीं करते, खुद निंदा-दुष्प्रचार और अत्याचार सहकर भी ईश्वर की यह संसाररूपी वाटिका अधिक-से-अधिक कैसे फले-फूले, महके इसके लिए अपना जीवन और सर्वस्व लगा देते हैं। जिस दिन धरती पर ऐसे संतों का अभाव हो जायेगा, यह धरती नहीं रहेगी, नरक हो जायेगी।

किन्हीं मनीषी ने कहा हैः

आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार।

संत न होते जगत में तो जल मरता संसार।।

कितना दुर्भाग्य होगा उन लोगों का, जो अपने इन परम हितैषियों को समझ न पाते हों और उनसे उनके हयातीकाल में ही लाभ उठाने से खुद वंचित रह जाते  और दूसरों को भी वंचित करते हों ! उन्हें जीवन के अंतिम क्षणों में पश्चात्ताप अवश्य होता है। किसी के साथ अत्याचार किया है तो मरते समय अंतरात्मा लानतें देता है। ऐसे लोग समय रहते ही चेत जायें तो कितना मंगल हो !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 9 अंक 308

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सूक्ष्म बुद्धि, गुरुनिष्ठा व प्रबल पुरुषार्थ का संगमः छत्रसाल


मुख पर ब्रह्मचर्य का तेज, अंग-अंग में संस्कृति रक्षा के लिए उत्साह, हृदय में निःस्वार्थ सेवाभाव – कुछ ऐसे गुण झलकते थे युवा वीर छत्रसाल के जीवन में। उस समय भारतभूमि व सनातन संस्कृति पर मुगलों का अत्याचार बहुत बढ़ गया था। अपनी संस्कृति की रक्षा करने हेतु छत्रसाल ने वीर युवकों का एक दल संगठित कर लिया था। पर मुगलों के पास लाखों सैनिक, हजारों तोपें सैंकड़ों किले व अगाध सम्पदा थी एवं देश के अधिकांश भाग पर उन्होंने अपना अधिकार जमा लिया था। छत्रसाल उत्साही और साहसी तो थे पर आँखें मूँदकर आग में छलाँग लगाने वालों में से नहीं थे। भगवद्ध्यान करने वाले छत्रसाल सूक्ष्म बुद्धि के धनी थे। वे मुगल सेना में भर्ती हुए और उनका बल व कमजोरियाँ भाँप लीं।

बाद में अपने राज्य में आकर छत्रसाल ने मातृभूमि को मुक्त कराने की गतिविधियाँ तेज कर दीं और कुछ ही समय में बुंदेलखंड का अधिकांश भाग मुगल शासन से मुक्त करा लिया।

औरंगजेब घबराया। उसने अनेक सूबेदारों को एक साथ छत्रसाल पर आक्रमण करने के लिए भेजा। यह परिस्थिति छत्रसाल के लिए चिंताजनक तो थी पर गुरु प्राणनाथ का कृपापात्र वह वीर चिंतित नहीं हुआ बल्कि युक्ति से काम लिया। उन्होंने औरंगजेब के पास संधि-प्रस्ताव भेजा।

औरंगजेब ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। ज्यों ही मुगल फौजदार बेफिक्र व असावधान हुए, त्यों ही छत्रसाल ने उन पर आक्रमण कर दिया। समाचार जब तक आगरा में औरंगजेब तक पहुँचे उसके पहले ही छत्रसाल ने बुंदेलखंड के अनेक स्थानों से मुगलों को खदेड़ डाला।

औरंगजेब ने पुनः सबको मिलकर आक्रमण करने का आदेश दिया। छत्रसाल को यह ज्ञात हुआ। अपने सदगुरु प्राणनाथ जी से अंतर्यामी आत्मदेव में शांत होकर सत्प्रेरणा पाने की कला छत्रसाल ने सीख ली थी। झरोखे से बाहर दूर पर्वत-शिखर पर टिकी उनकी दृष्टि सिमट गयी, आँखें बंद हो गयीं। मन की वृत्ति अंतर्यामी की गहराई में डूब गयी। शरीर कुछ समय के लिए निश्चेष्ट हो गया। कुछ समय बाद चेहरे की गम्भीरता सौम्यता में बदल गयी और आँखें खुल गयीं। उपाय मिल गया था। छत्रसाल ने सेनानायकों को आदेश देकर गतिविधियाँ रोक दी। मुगल फौजदार छत्रसाल से युद्ध करने में घबराते थे। वे इस संकट को जहाँ तक हो सके टालना चाहते थे। कुछ दिनों तक छत्रसाल के आक्रमणों का समाचार नहीं मिला तो उन्होंने औरंगजेब को सूचित कर दिया कि “अब छत्रसाल डर गये हैं।’ इस प्रकार मुगल सेना ने छत्रसाल पर आक्रमण नहीं किया।

कुछ समय बाद छत्रसाल ने पुनः मातृभूमि व संस्कृति के विरोधी उन मुगलों पर आक्रमण कर उनके सेनानायकों को परास्त किया और बंदी बनाया। मुगलों की प्रतिष्ठा धूमिल हो गयी।

मुगल साम्राज्य के सामने छत्रसाल की सेना व साधन-सामग्री कुछ भी नहीं थी लेकिन उनके पास दृढ़निश्चयी हृदय, पवित्र उद्देश्य, निःस्वार्थ सेवा, भगवदाश्रय तथा गुरु का आशीर्वाद व मार्गदर्शन था, जिसके बल पर वे बुंदेलखंड की विधर्मियों से रक्षा करने में सफल हो गये।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2018, पृष्ठ संख्या 20 अंक 306

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युग के विनाशकारी प्रभाव से बचाकर विद्यार्थियों को महान ऊँचाई पर कैसे पहुँचायें ?


प्राचीन काल में भारत की शिक्षण प्रणाली ऐसी थी कि विद्यार्थी 5 साल की उम्र से गुरुकुल में प्रवेश पाता और 15 साल तक उसको ऐसे संयमी और सादा जीवन बिता के इहलोक और परलोक में प्रभुत्व जमा दे ऐसी शक्तियों का विकास करता। देवता भी दैत्यों के साथ युद्ध में खट्वांग जैसे राजाओं की सहाय लेते थे। गुरुकुल में ऐसे विद्यार्थी तैयार होते थे।

अँग्रेज़ शासन आया और मैकाले ने अंग्रेज सरकार को सलाह दी कि जब तक भारतीय संस्कृति के संस्कारों का उन्मूलन नहीं किया जायेगा और पाश्चात्य पद्धति का अभ्यास नहीं करायेंगे, तब तक इन लोगों को हम स्थायी गुलाम नहीं बना सकेंगे। इससे अंग्रेजों ने हमारे भारतीय विद्यार्थियों और युवानों का ब्रेन वॉश करना शुरु किया। फलतः हमारी संस्कृति के गर्भ में जो संयम, सादगी और निष्ठा थी, ओज और तेज था वह सब अस्त-व्यस्त हो गया। कुछ लोग कहते हैं कि ‘यह विकास का युग है।’ लेकिन मैं कहता हूँ कि यह विद्यार्थियों के लिए तो बिल्कुल विनाश का युग है। उनके साथ इस युग में जो अन्याय हो रहा है ऐसा कभी हुआ नहीं था। उन्हे पहले देशी गाय का दूध मिलता था पर अभी चाय-कॉफी मिलती है। इससे यौवन की सुरक्षा नहीं  बल्कि नाश होता है, यादशक्ति घटती है। विद्यार्थी जीवन में साहस, बल और तेज का विकास करने की जो दीक्षा मिलती थी, जो ऋषियों की पद्धति थी वह सब अस्त-व्यस्त हो गयी। अभी तो…..

I stout, you stout,

who shall carry the dirt out ?

मैं भी रानी, तू भी रानी,

कौन भरेगा घर का पानी ?

इच्छा-वासनाएँ, दिखावा बढ़ गया और भीतर से जीवन खोखला हो गया। चाय-कॉफी, बीड़ी सिगरेट, शराब, भाँग जैसे पदार्थों से स्मरणशक्ति क्षीण हो जाती है। देशी गाय का दूध, ताजा मक्खन, गेहूँ, चावल, अखरोट, तुलसी-पत्ते इत्यादि के सेवन से जीवनशक्ति और स्मरणशक्ति का विकास होता है। प्रतिदिन सुबह आँखें बंद करके सूर्यनारायण के सामने खड़े रहो और नाभि से आधा से.मी. ऊपर के भाग में भावना करोः ‘सूर्य के नीलवर्ण का तेज मेरे केन्द्र में विकास के लिए आ रहा है।’ और श्वास भीतर खींचो। सूर्यकिरणें सर्वरोगनाशक व स्वास्थ्य प्रदायक हैं। सिर ढककर 8 मिनट सूर्य की ओर मुख व 10 मिनट पीठ करके बैठें।

समय बहुत अधिक न हो व धूप तेज न हो। इसकी सावधानी रखें। ऐसा सूर्यस्नान लेटकर करें तो और अच्छा। सूर्यनमस्कार भी करो। इससे स्वास्थ्य के साथ स्मृतिशक्ति भी गज़ब की बढ़ने लगेगी।

आज चारों ओर उपदेशों की भरमार है कि ‘चोरी मत करो, शराब मत पियो, बुरी आदतों का त्याग करो, दिल लगाकर अभ्यास करो….’ लेकिन चोरी न करके ध्यान देकर पढ़ने की जो युक्ति है, जो पद्धति है वह लोग भूलते गये। फिर विद्यार्थी बेचारा क्या करे ? नकल करके, कैसे भी करके परीक्षा में पास हो जाता है। लेकिन जीवन में ओज, बल और स्वावलम्बन होना चाहिए वह प्रायः विद्यार्थियों के जीवन में नहीं दिखाई देता। संयमी और साहसी जीवन जीने की हमारी भारतीय परम्परा है। 15 साल की उम्र तक साहस और संयम के जितने भी संस्कार बालक में डाले जायेंगे उतना ही वह बड़ा होकर प्रखर बुद्धिमान, स्वावलम्बी और साहसी सिद्ध होगा।

हम सब मिलकर नींव मजबूत बनायें

स्कूल कॉलेज में नियम और कायदे तो बनाये जाते हैं लेकिन विद्यार्थी की नींव का जीवन जैसा मजबूत बनना चाहिए उस पर सबको साथ मिलकर विचार, पुरुषार्थ करने की जरूरत है। आज के विद्यार्थी कल के नागरिक बनेंगे, देश के नेता आदि बनेंगे।

विद्यार्थियो ! सुबह जागो तब संकल्प करो कि ‘मैं भगवान का सनातन अविभाज्य अंग हूँ। मुझमें परमात्मा का अनुपम तेज और बल है। गिड़गिड़ा के, चोरी करके या विलासी हो के जीवन जीना नहीं है, संयम और सदाचार से जीवनदाता का साक्षात्कार करना है।’

शरीर को तन्दुरुस्त करने के लिए ध्यान व आसन है। इनके आपकी शक्ति का विकास होगा। आसन से रजोगुण कम होता है, सत्त्वगुण बढ़ता है, स्मृतिशक्ति बढ़ती है।

ज्ञानमुद्रा में ध्यान में बैठने का प्रयास करो। सच्चे हृदय से प्रार्थना करोः ‘असतो मा सद्गमय। मुझे असत्य आसक्तियों, असत्य भोगों से बचाओ। तमसो मा ज्योतिर्गमय। शरीर को मैं और संसार को मेरा मानना – इस अज्ञान अंधकार से बचाकर मुझे आत्मप्रकाश दो। मृत्योर्मामृतं गमय। मुझे बार-बार जन्मना-मरना न पड़े ऐसे अपने अमर स्वरूप की प्रीति और ज्ञान दे दो। ओ मेरे सदगुरु ! हे गोविन्द ! हे माधव !…. ऐसे सुबह थोड़ी देर प्रार्थना करके शांत हो जाओ। इससे बुद्धि में सत्त्व बढ़ेगा और बुद्धि मजबूत रहेगी, मन की गड़बड़ से मन को बचायेगी और मन इन्द्रियों को नियन्त्रित रखेगा।

अब करवट लो !

अब करवट लो बच्चो भाइयो, बच्चियो-देवियो ! तुम्हारा मंगल हो ! ‘जीवन-विकास, दिव्य प्रेरणा प्रकाश, ईश्वर की ओर जैसी पुस्तकें बार-बार पढ़ो-पढ़ाओ और हो जाओ उस प्यार के ! (ये पुस्तकें आश्रम व समिति के सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध हैं।) वह बल बुद्धि देता है, विवेक-वैराग्य भी देता है। असंख्य लोगों को देता आया है। तुम्हें भी देने में वह देर नहीं करेगा। पक्की प्रीति, श्रद्धा-सबूरी से लग जाओ, पुकारते जाओ। करूणानिधि की करुणा, प्यारे का प्यार उभर आयेगा। ॐ ॐ प्रभु जी ॐ…. प्यारे जी ॐ… मेरे जी ॐ….. आनंद ॐ….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 2,10 अंक 304

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