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पग-पग पर गुरुकृपा


‘श्रीमद्भागवत’ में गुरु-महिमा का वर्णन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- “ज्ञानोपदेश देकर परमात्मा को प्राप्त कराने वाला गुरु तो मेरा स्वरूप ही है।” सभी महान ग्रन्थों ने गुरु महिमा गायी है। जिस ग्रंथ में गुरु महिमा नहीं वह तो सदग्रन्थ ही नहीं है। श्री रामचरितमानस (रामायण) में भी गुरु-महिमा पग-पग पर देखने को मिलती है।

राम जी का जन्म गुरु-कृपा से

रामायण में आता है कि एक बार राजा दशरथ के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि ‘मुझे पुत्र नहीं है।’ गुर गृह गयउ तुरत महिपाला।…. दशरथ जी अपने गुरुदेव वसिष्ठ जी के आश्रम में गये और उनके चरणों में प्रणाम कर विनयपूर्वक अपना सारा दुःख सुनाया।

श्री वसिष्ठ जी ने उन्हें समझाया और कहाः “तुम्हें चार पुत्र होंगे।” गुरु जी ने पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया, जिसके फलस्वरूप राम जी का जन्म हुआ।

दशरथ जी का हर कार्य करने से पहले गुरुदेव से पूछते थे। गुरुकृपा के कारण ही राजा दशरथ देवासुर संग्राम में देवताओं की मदद करने सशरीर स्वर्ग गये थे।

एक बार शनिदेव रोहिणी का भेदन करने वाले थे, जिससे पृथ्वी पर 12 वर्षों तक अकाल पड़ता। इस आपदा से बचाने हेतु गुरुदेव की आज्ञा पाकर राजा दशरथ उस योग के आने के पहले ही शनिदेव से युद्ध करने हेतु चले गये और गुरुकृपा से प्रजा की रक्षा करने में सफल हुए।

दशरथ जी कहते थेः

नाथ सकल संपदा तुम्हारी।

मैं सेवकु समेत सुत नारी।। (श्रीरामचरित. बा.कां. 359.3)

दशरथ जी का जीवन और राज्य व्यवस्था गुरु के परहितपरायणता, निःस्वार्थता, परस्पर हित जैसे सिद्धान्तों से सुशोभित थी। ऐसे महान गुरुभक्त के घर भगवान जन्म नहीं लेंगे तो किसके घर लेंगे ?

राम जी की शिक्षा गुरुकृपा से

विश्वामित्र मुनि राम लक्ष्मण को लेने दशरथ जी के पास आये। वृद्धावस्था में तो संतान हुई और फूल जैसे कोमल कुमारों को जंगल में ले जाने के लिए मुनि माँग रहे थे, वह भी भयंकर राक्षसों को मारने हेतु। इतने खतरों के बीच राजा दशरथ कैसे भेज देते ! लेकिन जब गुरु वसिष्ठजी ने कहाः “महर्षि स्वयं समर्थ हैं किंतु ये आपके पुत्रों का कल्याण चाहते हैं इसीलिए यहाँ आकर याचना कर रहे हैं।” तो दशरथ जी ने गुरु आज्ञा मान कर आदर से पुत्रों को विश्वामित्र जी के हवाले कर दिया।

इससे प्रसन्न होकर विश्वामित्र जी बोलेः “राजन् ! तुम धन्य हो ! तुम्हारे में दो गुण हैं- एक तो यह कि तुम रघुवंशी हो और दूसरा कि वसिष्ठ जी जैसे तुम्हारे गुरु हैं, जिनकी आज्ञा में तुम चलते हो।”

राजा दशरथ की गुरु वचनों में ऐसी निष्ठा थी, ऐसा आज्ञापालन का भाव था कि गुरु जी ने कहा तो प्राणों से भी प्यारे प्रिय राम-लक्ष्मण को दे दिया। इसी भाव ने राजा को विश्वामित्र जी के कोप से भी बचा लिया।

राम जी को आत्मज्ञान की प्राप्ति गुरुकृपा से

गुरु असीम धैर्य व दया के सागर होते हैं। वसिष्ठजी ने राम जी को कभी प्रेम से समझाया, कभी डाँटा, कभी प्रोत्साहन दिया, अनेक दृष्टांत देकर बताया और ज्ञानवान बना के ही छोड़ा। सबसे बड़ा पद है गुरु पद, ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी जिन्हें झुककर प्रणाम करते हैं वे गुरु अपने शिष्य को हाथ जोड़कर कहते हैं कि “हे राम जी ! मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ, उसमें ऐसी आस्तिक भावना कीजियेगा कि इन वचनों से मेरा कल्याण होगा।” जिस स्थिति को पाने में ऋषि-मुनि पूरा जीवन लगा देते हैं वह स्थिति गुरु वसिष्ठजी ने सहज में राम जी को दिला दी।

राम जी तो भगवान विष्णु के अवतार थे, ज्ञातज्ञेय थे फिर भी मानवरूप में आने पर ज्ञान पाने के लिए गुरु की शरण में जाना ही पड़ा।

राम जी का विवाह गुरुकृपा से

राजा दशरथ इतने बड़े गुरुभक्त थे तो राम जी पीछे कैसे रहते ! राम जी भी कोई भी कार्य गुरुदेव को बिना पूछे नहीं करते थे। लक्ष्मण जी को जनकपुरी देखने की इच्छा हुई तो राम जी गुरु जी की आज्ञा लेकर वहाँ गये। धनुष उठाने व तोड़ने का सामर्थ्य होते हुए भी जब गुरुदेव ने आज्ञा दी, तब उनको प्रणाम कर धनुष तोड़ा पर अपने में किसी विशेषता के अहंकार को फटकने नहीं दिया। राम जी ने धनुष तोड़ा तो गुरु आज्ञा से, विवाह किया तो गुरु आज्ञा से। अगर कोई भी शिष्य अपने जीवन में सदगुरु की आज्ञा, गुरु के आदेशों को ले आये तो उसका जीवन भी राम जी की तरह वंदनीय और यशस्वी होगा।

भगवान के चौबीस प्रमुख अवतारों में श्री राम व श्री कृष्ण अवतार मानव-जाति के लिए विशेष प्रेरणाप्रद हो सके क्योंकि इन दो अवतारों में भगवान ने यह दिखाया कि किस प्रकार मनुष्य गुरुकृपा से जीवन के महान लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2019, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 282

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तीन प्रकार के शिष्य


तीन प्रकार के भक्त या शिष्य होते हैं। एक होते हैं आम संसारी भक्त, जो गुरुओं के पास आते हैं, उपदेश को सुनते हैं, कथा-वार्ताएँ सुनते हैं, जप-ध्यान करते हैं, कुछ-कुछ उनके उद्देश्यों को अपने जीवन में लाने का प्रयास करते हैं। ये सामान्य निगुरे आदमी से उन्नत तो होते जाते हैं लेकिन इससे भी दूसरे प्रकार के साधक ज्यादा नजदीक पहुँच जाते हैं, जिन्हें कहा जाता है अंतेवासी, आश्रमवासी। ये गुरु के आदर्शों को, उद्देश्यों को आत्मसात करके समाज तक फैलाने की दैवी सेवा खोज लेते हैं।

जैसे महात्मा बुद्ध के सम्पर्क में आने से कई लोग भिक्षुक और भिक्षुणी हो गये। ऐसे लोग वर्षों तक संतों का सान्निध्य पाकर अपने चित्त की जन्म-जन्मांतरों की जो मैल है, पुरानी आदतें हैं, पुराने आकर्षण-विकर्षण हैं, उनको मिटाकर आगे बढ़ना चाहते हैं। ऐसे शिष्य सैंकड़ों, हजारों में हो सकते हैं। आम भक्त तो लाखों, करोड़ों में भी हो सकते हैं।

तीसरे शिष्य होते हैं शक्तिवाहकः शक्तिस्वरूप से एक हो जाने में, गुरु के आत्मिक शक्ति के अनुभव को झेलने की क्षमता रखने वाले शिष्य। ये कभी-कभार कहीं-कहीं पाये जाते हैं।

श्री रामकृष्ण परमहंस जी के पास हजारों-लाखों लोग आये-गये होंगे, कई लोग आश्रमवासी भी रहे होंगे लेकिन नरेन्द्र ( जो गुरुकृपा से स्वामी विवेकानंद बने), नाग महाशय आदि कुछ ही शिष्य श्री रामकृष्ण के अनुभव को अपना अनुभव बनाने में सफल हो गये। पूरे समर्पित, पूरी आत्मशक्ति को झेलने की क्षमताएँ ! हालाँकि स्वामी विवेकानंद प्रचार-प्रसार के कारण अधिक प्रसिद्ध हुए।

वैसे देखा जाये तो शिष्यों के कई प्रकार हैं लेकिन शिष्यों के 3 प्रकार एक संत ने अपने नजरिये से ऐसे भी बताये हैं-

एक होते हैं पत्थर की नाईं। जैसे सरोवर में पत्थर आ गया तो उसकी तपन मिटी और वह शीतल हो गया, गीला-सा भी दिखता है लेकिन जितनी देर वह सरोवर में है उतनी देर ठंडा और गीला दिखता है। सरोवर से बाहर आ गया कड़ाके की धूप में तो वह अपनी शीतलता और नमी भुलाकर पुनः पूर्ववत् हो जायेगा। ऐसे ही आम आदमी जो निगुरे हैं अथवा कुछ ऐसे लोग होते हैं जैसे कामी, क्रोधी, लोभी, कठोर, स्वार्थी, फिर भी वे  सत्संग के वातावरण में आ गये तो वातावरण के प्रभाव से पावन, पवित्र होते हैं लेकिन उसका मूल्यांकन नहीं करते हैं, जाँच-पड़ताल के भाव आये या और किसी भाव से आये तो फिर थोड़े समय में उनका चित्त पूर्ववत् संसारी भावों में आ जाता है।

दूसरे होते हैं वस्त्र की नाईं। जैसे वस्त्र सरोवर में भिगो दिया, अब सरोवर से बाहर भी आया तो तुरंत सूखेगा नहीं, सरोवर की शीतलता और नमी अपने में सँजोये रखेगा। सूर्य की किरणें और हवायें जब जोर मारेंगी तब वे धीरे-धीरे सरोवर का प्रभाव हटा सकेंगी, मिटा देंगी। ऐसे ही जो नामदान लेते हैं, जिन्होंने जीवन में कोई व्रत-नियम लिया है उन्हें बाहर की तपन, बाहर के आकर्षण-विकर्षण जल्दी पुरानी स्थिति में नहीं लाते, समय लगता है लेकिन सयाने शिष्य पुरानी स्थिति में, हलकी स्थिति में आने के पहले ही किसी-न-किसी त्यौहार, किसी-न-किसी निमित्त – चाहे पूनम व्रत का निमित्त हो, चाहे सत्संग का निमित्त हो, चाहे सेवा का निमित्त हो, फिर गुरु के दर्शन करके अपना हृदय भगवद्भाव, भगवद्ध्यान और भगवदीय सेवा से सराबोर करके मधुर बना लेते हैं।

तीसरे शिष्य होते हैं मिश्री जैसे। मिश्री सरोवर में डाल दी, अब सरोवर में पड़े-पड़े पानी से मिल जायेगी। अब खुद मिश्री को डालने वाला भी अगर पानी से मिश्री को अलग करना चाहे तो मुश्किल है। ऐसे ही जो पूर्ण तैयार होकर आते हैं, वे अपने अहं-मम को, अपनी चिंता-कामनाओं को परमात्म-सत्संग में और गुरु के अनुभव में ऐसा न्योछावर कर देते हैं कि फिर उनकी वे कामनाएँ, उनके वे अहंकार, वे ईर्ष्याएँ, वे दोष अब दिन-रात खोजने पर भी नहीं मिलते।

भंग भसूड़ी सुरापान उतर जाये  प्रभात।

नाम नशे में नानका छका रहे दिन-रात।।

ऐसे पुरुष नाम नशे में, ईश्वरीय सुख में, आत्मिक आनन्द छके में रहते हैं। नानक जी ने भक्तों को संदेश दिया हैः

साथि न चालै बिनु भजन बिखिआ सगली छारू।

हरि हरि नाम कमावना नानक इहु धनु सारू।।

भजन के बिना दूसरी कोई वस्तु मनुष्य के साथ नहीं जाती। सारी माया राख के समान है। हे नानक ! हरि नाम की कमाई ही सबसे अच्छा धन है।

कितना भी धन इकट्ठा कर दिया, कितनी भी सुविधाएँ भोग लीं तो भी अंत में शरीर राख में मिल जायेगा। अंतरात्मा का सुख, ज्ञान और माधुर्य ही सच्चा धन है।

मन मेरे तिन की ओट लेहि।।

मन तनु अपना तिन जन देहि।।

अगर तीसरे प्रकार का उत्तम साधक बनना है तो उस ईश्वर की, उस रब की अनुभूति करने के लिए अऩुभवसम्पन्न महापुरुषों के अनुभव की तू ओट (शरण) ले। अपना मन और तन उन्हीं के अनुभव में  लगाओ, उन्हीं की यात्रा में लगाओ।

शरीर राख में मिल जाये उसके पहले तेरा अहं उस सत्संगरूपी, संतरूपी अमृत में मिला दे, मिश्री जैसे पानी में मिल जाती है, ऐसे ही तेरा मन मिला दे भैया !

जिनि जनि अपना प्रभू पछाता।।

सो जनु सरब थोक का दाता।।

जिन्होंने अपने प्रभुत्व का अनुभव किया है, जो देह में रहते हुए भी देह को ‘मैं’ नहीं मानते हैं, मन के साथ एकाकार हुए दिखते हैं फिर भी मन के द्रष्टा हो गये हैं, बुद्धि के साथ एकाकार होकर कुशलता से व्यवहार करते हैं लेकिन फिर भी बुद्धि के निर्णय बदलते हैं, उनकी बदलाहट को जो जानता है उस अद्वैत ब्रह्म में एकाकार हुए हैं, वे भोग भी दे सकते हैं, मोक्ष भी दे सकते हैं, परम पद का पता बताते-बताते उसका अनुभव भी करा सकते हैं।

ब्रह्म गिआनी1 मुकति2 जुगति3 जीअ4 का दाता।।

ब्रह्म गिआनी पूरन पुरखु5 बिधाता6।।

ब्रह्म गिआनी का कथिआ न जाइ अधाख्यरू7।।

ब्रह्म गिआनी सरब8 का ठाकुरु9।।

1.ब्रह्म ज्ञानी 2. मुक्ति 3 युक्ति 4. जीवन 5. पूर्ण पुरुष 6. विधाता 7. ब्रह्म ज्ञानी की महिमा का आधा अक्षर भी बयान नहीं किया जा सकता 8. सर्व 9. भगवान/पूज्य

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2016, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 282

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साधना में चार चाँद लगाती मानस-पूजा


 

(गुरु पूर्णिमाः 31 जुलाई पर विशेष)

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एक ऐतिहासिक घटित घटना हैः जगन्नाथ मंदिर के दर्शन करके चैतन्य महाप्रभु कुछ दिन जगन्नाथपुरी में ही रहे थे। उस समय उत्कल (ओड़िशा) के बुद्धिमान राजा प्रतापरूद्र उनके दर्शन करना चाहते थे लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने उनकी बात ठुकरा दी। राजा ने खूब प्रयत्न किये परंतु चैतन्य महाप्रभु नहीं माने। आखिर राजा ने ठान लिया कि ‘कुछ भी हो, मैं इन महापुरुष की कृपा को पाकर ही रहूँगा।’

राजा की तीव्र इच्छा और दृढ़ता देखकर चैतन्य महाप्रभु के एक शिष्य ने कहाः “राजन् ! परसों जगन्नाथ जी की रथयात्रा है। चैतन्य महाप्रभु रथ को खींचेंगे तब यात्रा शुरु होगी। फिर दोपहर में वे अमुक बगीचे में विश्राम करेंगे। आप सेवक के वेश में जाकर वहाँ सेवा-टहल करना। यदि आपकी सेवा स्वीकार हो जायेगी तो आपका काम बन जायेगा। जिसकी जिह्वा पर भगवान का निर्मल यशोगान होगा, चैतन्य महाप्रभु निश्चय ही उसे अपने हृदय से लगा लेंगे।”

प्रतापरुद्र ने वैसा ही किया। बगीचे में जमीन पर लेटे चैतन्य महाप्रभु के चरण सहलाने लगे। चरण सहलाते-सहलाते ‘श्रीमद्भागवत’ का ‘गोपीगीत’ मधुर स्वर से गुनगुनाने लगे। जिसे सुनकर चैतन्य महाप्रभु पुलकित हो उठे। उन्होंने कहाः “फिर-फिर, आगे कहो…..।

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्।

श्रवणमंङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः।।

‘हे प्रभु ! तुम्हारी कथा अमृतस्वरूप है। विरह से सताये हुए लोगों के लिए तो यह जीवन-संजीवनी है, जीवन सर्वस्व ही है। बड़े-बड़े ज्ञानी, महात्माओं, भक्त-कवियों ने उसका गान किया है। यह सारे पापों को तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवणमात्र से परम मंगल, परम कल्याण का दान भी करती है। यह परम सुंदर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है। जो तुम्हारी इस लीला, कथा का गान करते हैं, वास्तव में भूलोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।’ (10.31.9)

यह श्लोक सुन चैतन्य महाप्रभु का हृदय छलका और उठकर राजा को गले लगा लियाः “तू कौन है ? कहाँ से आया है ?”

राजाः “यहीं का हूँ, उत्कल प्रांत का, आपके दासों का दास हूँ।”

“अरे भैया ! तुमने तो आज मुझे ऋणी बना दिया ! कितनी शांति दी ! भगवान की याद दिलाने वाला गोपीगीत तुमने कितना सुंदर गाया ! तुम क्या चाहते हो ?”

“महाराज ! आपकी कृपा चाहता हूँ।”

ऐसे करते-करते सदगुरु की कृपा पायी राजा प्रतापरुद्र ने।

कितने वर्षों की मेहनत के बाद आत्मा में विश्रांति पाये व्यासरूप गुरु मिलते हैं ! ऐसे गुरुओं का आदर-पूजन यह अपने आत्मा का ही आदर-पूजन है।

व्यास जी की स्मृति में आषाढ़ी पूनम मनाने वाले साधकों को देवताओं ने अमिट पुण्य की प्राप्ति का वरदान दिया। इस दिन सुबह संकल्प करना चाहिए कि ‘आज व्यासपूर्णिमा को मैं अपने गुरुदेव का आदर-सत्कार, पूजन करूँगा। गुरु के सिद्धान्त, मार्गदर्शन और कृपा का आवाहन करूँगा।’

इस प्रकार गुरुभाव करते-करते अपने हृदय को पावन करना चाहिए। शिवाजी महाराज जैसे गुरु को स्नान कराते थे, ऐसे हम लोग गुरु को स्नान नहीं करा पाते थे लेकिन मन  ही मन गुरुदेव को हम स्नान कराते थे। मानस-पूजा का महत्व और विशेष होता है। जैसे भक्त षोडशोपचार से देवी-देवता या भगवान की पूजा करते हैं, ऐसे ही गुरुभक्त गुरु की पूजा करते हैं। अब गुरु जी को जल से, पंचामृत से स्नान कराना – यह तो सम्भव नहीं है लेकिन मानस-पूजा करने से गुरु भी नहीं रोक सकते और भगवान भी नहीं रोक सकते। जो प्रतिदिन गुरु का मानसिक पूजन करके फिर जप-ध्यान करते हैं, उनका जप-ध्यान दस गुना प्रभावशाली हो जाता है और अधिक एकाग्रता से करते हैं तो और दस गुना, मतलब सौ गुना लाभ हो जाता है। गुरुपूनम के दिन अगर गुरुदेव का मानसिक पूजन कर लिया तो गुरुपूनम का पर्व और चार चाँद ले आयेगा। दो गुरु जी को नहला दिया। गुरु जी को वस्त्र  पहना दिये। फिर गुरु जी को तिलक किया, पुष्पों की माला पहनायी। गुरु जी को आदर से हाथ जोड़कर स्तुति करके कह रहे हैं- ‘हे गुरुदेव ! आप साक्षात् परब्रह्म हो, सच्चिदानंदस्वरूप हो, अंतरात्मस्वरूप हो। ब्रह्मा-विष्णु-महेश, सर्वव्यापक चैतन्य और आप एक ही हैं।

जब मन-ही-मन नहलाना तो सादे जल से क्यों नहलाना ? गंगोत्री का पावन जल है, तीर्थों का जल है। मन-ही-मन पहनाना तो सादे कपड़े क्यों पहनाना ? नये कोरे वस्त्र पहना दिये। चंदन लगा दिया, तिलक कर दिया। गुलाब व मोगरे की माला पहना दी। आरती कर दी, धूप कर दिया। अब बैठे हैं कि ‘गुरुदेव ! हजारों जन्मों में पिता-माता मिले, उन्होंने जो दिया वह नश्वर लेकिन आपने जो दिया है वह काल का बाप भी नहीं छीन सकता। हे अकालपुरुष मेरे गुरुदेव ! आपके दिये हुए संस्कारों से दुःखों के माथे पर पैर रखने का सामर्थ्य आता है।’

संकल्पों का बड़ा बल होता है। शुभ संकल्प बड़ा प्रभाव दिखाते हैं। सदगुरु शिष्य के लिए शुभ संकल्प करें तो शिष्य का भी फिर यह भाव हो जाता हैः ‘गुरुदेव ! हम बाहर की चीजें तो आपको क्या दें ! फिर भी कुछ भी नहीं देंगे तो उऋण नहीं होंगे, कृतघ्न, गुणचोर हो जायेंगे इसलिए गुरुपूनम के निमित्त मत्था टेकते हैं और शुभ संकल्प करते हैं कि आपका स्वास्थ्य बढ़िया रहे, आपका आरोग्य धन बढ़ता रहे, आपका ज्ञानधन बढ़ता रहे, आपका प्रेमधन बढ़ता रहे, आपका परोपकार का यह महाभगीरथ कार्य और बढ़ता रहे तथा हमारे जैसे करोड़ों लोगों का कल्याण होता रहे। गुरुदेव ! आपका आनंद और छलकता रहे। आपकी कृपा हम जैसे करोड़ों पर बरसती रहे। हम जैसे तैसे हैं, आपके !

प्रभु मेरे अवगुन चित्त न धरो।

समदरशी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो।।

यह शिष्य का शुभ भाव, शुभ संकल्प उसके हृदय को तो विशाल बनाता ही है, साथ ही गुरु के विशाल दैवी कार्य में भी सहायक बन जाता है।

शिष्य कहता हैः ‘एक लोहा कसाई के घर का और दूसरा ब्राह्मण के घर का है लेकिन पारस तो दोनों को सोना बनाता है, ऐसे ही हे गुरुवर ! हमारे गुण-अवगुण न देखिये। हम जैसे-तैसे हैं, आपके हैं। आपके वचनों में हमारी प्रीति बनी रहे। आप हमें परम उन्नत देखना चाहते हैं तो आपका शुभ संकल्प जल्दी फले। मेरे गुरुदेव ! सुख-दुःख में सम, मान-अपमान में सम, गरीबी-अमीरी में सम-ऐसा जो सच्चिदानंदस्वरूप का स्वभाव है, वैसा मेरा स्वभाव पुष्ट होता रहे।’

आत्मतीर्थ में जाने के लिए व्यासजी की आवश्यकता है। हमारी बिखरी हुई चेतना, वृत्तियों, जीवनशैली को, बिखरे हुए सर्वस्व को सुव्यवस्थित करके सुख-दुःख के सिर पर पैर रखकर परमात्मा तक पहुँचाने की व्यवस्था करने में जो सक्षम हैं और अकारण दयालु हैं, ऐसे सदगुरुरूपी भगवान व्यास की आवश्यकता समाज को बहुत है। ऐसे व्यास अगर एकांत में चले जायें तो फिर गड़रिया-प्रवाह (विचारहीन, दिशाहीन होकर देखा-देखी एक एक-दूसरे का अनुसरण करते जाना) चलता रहेगा। श्रद्धालु तो लाखों-करोड़ों हैं लेकिन गुरुज्ञान के अभाव में श्रद्धा के फलस्वरूप जीवन में जो जगमगाहट, हृदय की प्रसन्नता, शांति माधुर्य चाहिए, वह पूरा नहीं मिलता है। अन्य देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी किसी की पूजा रह जाती है लेकिन जो व्यासस्वरूप ब्रह्मज्ञानी गुरु हैं, उनकी पूजा के बाद किसी देव की पूजा बाकी नहीं रह जाती।

हरि हर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय।

सदगुरु की पूजा किये सब की पूजा होय।।

(विचारसागर वेदांत ग्रंथ)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 12-14 अंक 271

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