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Self Realization

ईश्वर प्राप्ति इसी जन्म में संभव है…. पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


 

कई लोगों को होता है कि ʹहम सियाराम-सियाराम…. हरि ૐ-हरि ૐ…ʹ करते हैं, शिविर भरते हैं, शराब-कबाब छोड़ दिया है फिर भी भगवान नहीं मिलते। क्यों ?

जो चीज अधिक आसान होती है, आसानी से मिलती है। उसका लाभ भी तुच्छ होता है, छोटा होता है। जिस मौसम में जो सब्जी या फल ज्यादा होते हैं उसकी कीमत भी कम होत है।

जीवन में सोना इतना काम नहीं आता जितना की लोहा। भोजन बनाने में, औजार बनाने में, मकान आदि बनाने में लोहा जितना उपयोगी है उतना उपयोग सोने का नहीं है। लेकिन कम मात्रा में मिलने के कारण महँगा सोना खरीदा भी जाता है और बड़े यत्न से रखा भी जाता है।

लखपति के लि 25-50 या 100-200 रूपये की कोई कीमत नहीं किन्तु गरीब व्यक्ति के लिए तो 1-2 रूपये भी कीमती हैं।

जिनके यहाँ साल-दो-साल में बालक आ जाते हैं उन्हें बालक मुसीबत से लगते हैं जबकि जिनके यहाँ 15-20 साल बाद बालक का जन्म होता है तो उन्हें लगता है कि मानो, साक्षात देवता ही आ गये हों।

इसी प्रकार अगर वह परब्रह्म-परमात्मा यदि आसानी से मिल जाता तो उसका आनंद, उसका माधुर्य नहीं ले पाते लेकिन बहुत यत्न करते-करते जब मिलता है तो खूब आनंद-माधुर्य छलकता है।

यहाँ दूसरा प्रश्न उठ सकता है कि ʹफिर भी सबको तो भगवान नहीं मिलते। क्यों ?

हाँ, यह बात सही है लेकिन सबको न मिलने का कारण होता है। एक होती है इच्छा और दूसरी होती है आकांक्षा। इच्छा केवल दिमाग को घुमाती है जबकि आकांक्षा मन-बुद्धि को उसमें सक्रिय भी करती है। दुर्बल इच्छा या दुर्बल आकांक्षा वाला व्यक्ति ईश्वर की प्राप्ति तक की यात्रा नहीं कर पाता है।

अच्छा, यह बात भी स्वीकार कर ली तो पुनः एक प्रश्न उठ सकता है कि ʹइच्छा बढ़कर आकांक्षा बनती है और आकांक्षा जब तीव्र होती है तब जीव ईश्वर को पाता है। यह बात भी ठीक है परंतु जिसकी दुर्बल इच्छा-आकांक्षा है तो वह यदि ईश्वर के रास्ते चला और ईश्वर नहीं मिला तो फिर उसकी इतनी मेहनत का क्या लाभ ? संसार के आकर्षणों के त्याग का क्या लाभ ?

इसका उत्तर है कि संसार की चीजों को पाने का आपने यत्न किया और वे नहीं मिलीं तो आपका यत्न व्यर्थ गया किन्तु ईश्वर को पाने का यत्न किया और ईश्वर इस जन्म में नहीं मिले तो भी वह यत्न व्यर्थ नहीं जाता।

संसार की चीजें जड़ हैं, उन्हें पता नहीं कि ʹआप उनको पाना चाहते हैंʹ। अतः अगर आपको वे चीजें नहीं मिलतीं, तब भी आपकी दुर्बल इच्छा-आकांक्षाओं को सबल बनाने की ताकत उन जड़ वस्तुओं में नहीं है जबकि आपकी आरंभिक दुर्बल इच्छा-आकांक्षा को देखकर अंतर्यामी परमात्मा सोचता है कि ʹनिर्बल के बल राम….।ʹ देर-सबेर, इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में, इस जन्म की गयी इच्छा-आकांक्षा को, इस जन्म की साधना को पुष्ट बनाकर वह प्रियतम परमात्मा स्वयं ही मिल जाता है।

इस जन्म का वकील, डॉक्टर दूसरे जन्म में पुनः वकील, डॉक्टर बनना चाहे तो जरूरी नहीं कि बन ही जाये ओर अगर बने भी तो उसे आरंभ तो क, ख, ग, घ… , A, B, C, D…. आदि से ही आरंभ करना पड़ेगा। लेकिन इस जन्म का अगर कोई भक्त है तो दूसरे जन्म में उसे फिर से भक्ति की A, B, C, D…. करने की जरूरत नहीं है वरन् जहाँ से भक्ति छूटी है, वहीं से शुरू हो जायेगी।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोभिजायते।।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।।

ʹयोगभ्रष्ट पुरुष शुद्ध आचरणवाले श्रीमान् पुरुषों के घर में जन्म लेता है अथवा ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है।ʹ (गीताः 6.41.42)

आध्यात्मिक सफलता ऊँची चीज है। वह अनायास और जल्दी नहीं मिलती है वरन् ऊँची चीजों के लिए ऊँचा प्रयत्न करना पड़ता और ऊँची चीजों की महत्ता को स्वीकारना पड़ता है। अमर तत्त्व की प्राप्ति, परमात्मा की प्राप्ति की तीव्र इच्छा कोई मजाक नहीं है। उसमें खूब विवेक चाहिए।

जिसकी ईश्वर प्राप्ति की आकांक्षा खूब तीव्र होती है, वह इसी जन्म में ईश्वर को पा लेता है और आकांक्षा अगर तीव्र नहीं है तो कालान्तर में वह तीव्र बनती है और वह ईश्वर को पा लेता है। किन्तु कालान्तर में तीव्र बने, इसका इन्तजार क्यों करो ? बल्कि अभी तीव्र बना लो। जैसे शहद के छत्ते में एक रानी मधुमक्खी होती है। रानी मधुमक्खी जहाँ जाती है वहाँ बाकी की सारी मधुमक्खियाँ उसी का अनुसरण करती हैं। ऐसे ही आपके जीवन में ईश्वरप्राप्ति की इच्छा को रानी बना दो, मुख्य बना दो तो जो कई जन्मों के बाद मिल सकता है वह अमर तत्त्व, वह अमर पद आप इसी जन्म में पा सकते हैं। केवल अपनी आकांक्षा को तीव्र कर दो, बस।

कई लोग व्यवहार में विफल होते हैं तो कहते हैं- ʹभाई ! मैंने धंधा तो किया किन्तु चला नहीं क्योंकि संघर्ष बहुत था… यह काम तो किया लेकिन क्या करें ? भाग्य ही ऐसा था…. पिता-भाई-भागीदार ने साथ नहीं दिया…ʹ वगैरह-वगैरह। सच बात तो यह है कि उनकी आकांक्षा की तीव्रता नहीं होती इसलिए वे विफल होते हैं और दोष देते हैं व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति को।

विफलता का मुख्य कारण यही है कि आकांक्षारूपी रानी मधुमक्खी के अभाव में साधारण मधुमक्खी बैठा देते हैं और दोष परिस्थितियों को देते हैं। ʹभाई ! इसने धोखा दे दिया… उसने ऐसा कर दिया….ʹ जबकि किसी की आकांक्षा तीव्र होती है तो वह कार्य को पूरा करके ही छोड़ता है और उस कार्य में सफल भी होता है।

जैसे, सांसारिक कार्यों में भी व्यक्ति दुर्बल इच्छा व आकांक्षा व असावधानी के कारण विफल होता है, ठीक वैसा ही ईश्वरप्राप्ति का कार्य है। यदि व्यक्ति की ईश्वरप्राप्ति की आकांक्षा तीव्र नहीं होती तो उसका ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य भी सिद्ध नहीं होता। अतः व्यक्ति को चाहिए कि आकांक्षा को तीव्र बनाये।

आकांक्षा को तीव्र कैसे बनाया जाये ? रोज सुबह उठकर संकल्प करें- “मैं अमर तत्त्व को पाऊँगा। जिसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रहता, जिसे जानने के बाद और कुछ जानना शेष नहीं रहता और जिसमें स्थिर रहने के बाद बड़े भारी दुःख से भी आदमी विचलित नहीं होता, जिसमें स्थिर होने के बाद इन्द्र का पद भी तुच्छ लगता है उसी में मैं स्थिर रहूँगा….।” इस संकल्प को रोज जोर से दुहरायें। सूर्योदय और संध्या के वक्त का फायदा लें, उपासना करें। महाभारत में यह लिखा है कि ऐसा करने वाले व्यक्ति की धृति, मेधा और प्रज्ञा बढ़ती है। अतः सूर्योदय और सूर्यास्त के वक्त का उपयोग उपासना में करो। चूको नहीं।

दृढ़तापूर्वक इस छोटे से नियम को पालो। तमाम व्यावहारिक विडंबनाएँ मिटाने का सामर्थ्य और ईश्वरप्राप्ति का रास्ता तय करने में भी इससे आसानी होगी। हिम्मत करो।

आलस कबहुँ न कीजिये आलस अरि सम जानि।

आलस से विद्या घटे बल-बुद्धि की हानि।।

रात को जल्दी सो जाओ, रात्रि का भोजन जल्दी कर लो। सुबह जल्दी उठो और इस संकल्प को आत्मसात् कर लो तो अमर तत्त्व पाने की आकांक्षा बढ़ेगी।

दूसरी बात है कि भगवान की महत्ता जान लो कि भगवान सबसे महान हैं। सब पदों से भी परमात्मपद ऊँचा है। सब यशस्वी और सुखियों से भी परमात्मपद को पाये हुओं का यश और सुख ऊँचा है।

जो लोग दान-पुण्य करके सुखी और यशस्वी होना चाहते हैं, ठीक है… धन्यवाद के पात्र हैं वे, लेकिन परमात्मप्राप्ति वालों का यश और सुख अदभुत होता है। धन या सत्ता के बल से जो यशस्वी और सुखी होना चाहते हैं उनका यश सुख भी स्थायी नहीं होता। जो अपने मधुर स्वभाव के बल से यशस्वी-सुखी होना चाहते हैं उनसे भी परमात्मप्राप्तिवालों का सुख और यश ऊँचा होता है। जो दान-पुण्य नहीं करते हैं उनकी अपेक्षा दान-पुण्य करने वालों का यश-सुख टिकता है लेकिन अखंड आत्मतत्त्व को पाये हुओं का सुख अखंड टिकता है। यश तो उऩ्हीं का स्थायी होता है जो तीव्र प्रयास करके, ऊँचा प्रयास करके ऊँचे में ऊँची चीज आत्मदेव को पा लेता है।

इस प्रकार जितनी-जितनी आप ऊँची चीज पसंद करते हैं उतनी-उतनी ही तीव्र आकांक्षा रखनी पड़ती है। उतना ही ऊँचा पुरुषार्थ करना पड़ता है तभी उतना ऊँचा सुख या यश टिकता है।

बालक छोटे-छोटे खिलौनों से या लॉलीपॉप बिस्किट से भी रीझ जाता है किन्तु वही बालक जब बड़ा हो जाता है तो क्या उसे हीरे के लिए लालीपॉप या बिस्किट से रिझाया जा सकता है ? नहीं, क्योंकि उसकी मति अब कुछ सुयोग्य बनी हैं। ऐसे ही यह जगत भी लालीपॉप या बिस्किट के टुकड़े जैसा है और परमात्मा हीरों का हीरा है। आपकी मति ऐसी बने कि जगत की किसी भी ऊँचाई को पाने की लालच में ईश्वरप्राप्ति की इच्छा को न छोड़ दें। किसी शत्रु को ठीक करने में कहीं आपका ईश्वर न छूट जाये। किसी मित्र को रिझाने में कहीं आपका ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य न छूट जाये। किसी सुविधा को पाने में कहीं आप अपने लक्ष्य से च्युत न हो जायें। कोई असुविधा आपकी ईश्वरप्राप्ति की उमंग को न छुड़वा दे। ऐसी सतर्कता रखनी चाहिए।

गलती यह होती है कि ईश्वरप्राप्ति की इच्छा-आकांक्षा तीव्र न होने के कारण हम ईश्वरप्राप्त की बात को एवं जहाँ ईश्वरप्राप्ति की बात सुनने को मिलती है उन महापुरुषों को सुनते हुए भी नहीं सुनते हैं।

ʹमहाराज ! यह कैसे ? ईश्वरप्राप्ति की जो बातें बताते हैं उन महापुरुषों के वचनों को हम सुनते हुए भी नहीं सुनते, यह कैसे ?ʹ

एक बार गौतम बुद्ध ने यही बात आनंद से कही थी किः “आनंद ! मुझे कोई नहीं सुनता है। सब अपने-अपने को ही सुनते हैं।”

“भंते ! यह कैसे ? सब आपको सुनने के लिए ही तो आते हैं।”

“नहीं आनंद नहीं। सब मुझे सुनने के लिए नहीं आते बल्कि अपने को ही सुनने के लिए आते हैं और जो जैसा है वैसा ही सुनता है।”

आनंद फिर भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। तब बुद्ध बोलेः

“आज खुद ही इस बात का पता चल जायेगा, आनंद !”

शाम का सत्संग पूरा हुआ, तब बुद्ध ने प्रतिदिन की तरह आज भी दुहराया किः “जाओ, समय बीता जा रहा है… अपने-अपने काम में तत्परता से लगो। दिया हुआ वायदा जरूर निभाना चाहिए। बीता हुआ समय वापिस नहीं आता है। अपना वायदा निभाने वाला व्यक्ति ही सफल होता है।”

इतना कहकर बुद्ध उठे एवं राहगीरों के रास्ते पर आनंद को लेकर खड़े हो गये। पहले-पहले एक वेश्या निकली। उससे पूछाः “तुमको आज सत्संग में कौन सी बात अच्छी लगी ?”

“भगवन् ! आप और यहाँ !! आप सचमुच में भगवान हैं, अंतर्यामी हैं। आज की यह बात तो बहुत ही बढ़िया थी कि ʹदिया हुआ वचन निभाना चाहिए।ʹ आज मैं एक बड़े सेठ को वक्त दे आयी थी और आपने मुझे वक्त पर ही अपना वायदा याद दिला दिया। आप सचमुच ही अंतर्यामी हैं।”

इस प्रकार वेश्या ने अपने को ही सुना, बुद्ध को नहीं।

इतने में दूसरा आदमी निकला। उससे पूछाः “भाई ! आज तुम्हें सबसे ज्यादा क्या बढ़िया लगा ?”

उसने कहाः “वायदा निभाने वाली बात बहुत बढ़िया थी। आज हमने साथियों को वायदा दे रखा है और जहाँ डाका डालना है वहाँ यदि वक्त निकल जायेगा तो हम विफल हो जायेंगे। अतः वक्त कहीं बीत न जाये, इसकी याद दिला दी भंते ने।”

डाकू ने भी अपने को ही सुना। इतने में एक भिक्षु को रोका और उससे पूछाः

“भैया ! आज तुमने क्या सुना ?”

भिक्षुः “हर मनुष्य माँ के गर्भ में प्रार्थना करता है कि ʹहे प्रभु ! बाहर निकलकर तेरा भजन करेंगे।ʹ यह वादा करके गर्भ से बाहर निकलता है कि ʹअब वक्त व्यर्थ नहीं करेंगे, अपना जीवन सार्थक करेंगे।ʹ भंते ! आप भी रोज कहते हैं कि ʹसमय बीत रहा है…ʹ मौत कब आकर गला दबोच ले इसका कोई पता नहीं है इसलिए वक्त का सदुपयोग करेंगे। कहीं असत् वस्तुओं में वक्त न चला जाये, असत् आकांक्षाओं में वक्त न चला जाये, असत् इच्छाओं में वक्त न चला जाये क्योंकि ʹबीता हुआ समय फिर वापस नहीं आता।ʹ आपकी यह बात हमें बहुत जँची।”

तब बुद्ध ने आनंद से कहाः “देख आनंद ! इसने भी अपने को ही सुना है। यह भिक्षु है, इसलिए अपने को ठीक ढंग से सुना है। डाकू और वेश्या ने अपने ढंग से सुना था और भिक्षु ने अपने ढंग से। इस प्रकार सब अपने को ही सुनते हैं।”

फिर भी जैसे पिता बच्चे की हजार-हजार बात मान लेते हैं और बच्चे की भाषा में अपनी भाषा मिला देते हैं, ʹरोटीʹ को ʹलोतीʹ बोल लेते हैं ताकि बच्चा आगे चलकर पिता की भाषा सीख ले। ऐसे ही बुद्ध पुरुष आपकी हजार-हजार ʹहाँʹ में ʹहाँʹ भर लेते हैं ताकि एक दिन तुम भी उनकी हाँ में हाँ भरने की योग्यता पा लो। ईश्वरप्राप्ति की इच्छा-आकांक्षा तीव्र करके मुक्त होने का सामर्थ्य पा लो।

ईश्वरप्राप्ति की आकांक्षा अगर तीव्र हो गयी तो फिर मुक्ति पाना तो वैसे भी सहज ही हो जायेगा और इसके लिए आवश्यक है साधन भजन की तीव्रता।

मान लो, किसी दुकानदार का लक्ष्य है रोज 2000 रूपये का धंधा करना। रात होते-होते उसका 2500-3000 रूपयों का धंधा हो जाता है। एक दिन अगर उसने सुबह-सुबह ही 4500 रूपयों का धंधा कर लिया तो क्या वह दुकान बंद कर देगा कि आज का लक्ष्य पूरा हो गया ? नहीं नहीं, वह सारा दिन दुकान चालू रखेगा कि 5000 रूपयों का धंधा हो जाये… 6000 रूपयों का हो जाये। जब मनुष्य को नश्वर धन मिलता है तब भी वह लोभ बढ़ा लेता है ऐसे ही शाश्वत साधन-भजन और निष्ठा में लोभ बढ़ा दे तो तीव्र आकांक्षा आत्मसाक्षात्कार करा देगी।

कबीरजी ने कहा हैः

 

परमानंद की प्राप्ति का साधन


 

पूज्यपाद संत श्री आशाराम जी बापू

आत्मकल्याण के इच्छुक व ईश्वरानुरागी साधकों को आत्मशान्ति, आत्मबल प्राप्त करने के लिए, चित्तशुद्धि के लिए ज्ञानमुद्रा बड़ी सहाय करती है। ब्रह्ममुहूर्त की अमृतवेला में शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर गर्म आसन बिछाकर पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में बैठ जाओ। 10-15 प्राणायाम कर लो। यदि त्रिबन्ध के साथ प्राणायाम हो तो बहुत अच्छा है। तदनन्तर दोनों हाथों की तर्जनी यानी पहली अंगुली के नाखून को अंगूठों से हल्का सा दबाकर दोनों हाथों को घुटनों पर रखो। शेष तीनों अंगुलियाँ सीधी व परस्पर जुड़ी रहें। हथेली ऊपर की ओर रहे। गर्दन व रीढ़ की हड्डी सीधी। आँखें अर्धोन्मिलित एवं शरीर अडोल रहे।

अब गहरा श्वास लेकर ʹૐ….ʹ का दीर्घ गुँजन करो। प्रारंभ में ध्वनि कण्ठ से निकलेगी, फिर गहराई में जाकर हृदय से ʹૐʹ की ध्वनि निकालिये। बाद में और गहरे जाकर नाभि या मूलाधार से ध्वनि उठाइये। उस ध्वनि से सुषुम्ना का द्वार खुलता है और जल्दी से आनंद प्राप्त होता है। चंचल मन तब तक भटकता रहेगा, जब तक उसे भीतर का आनंद नहीं मिलेगा। ज्ञानमुद्रा व ʹૐʹ की ध्वनि से मन की भटकान शीघ्र बन्द होने लगेगी। ध्यान के समय जो काम करने की जरूरत न हो उसका चिन्तन छोड़ दो। चिन्तन आ जाय तो ʹૐ अगड़ं-बगड़ं स्वाहाʹ करके उस व्यर्थ चिन्तन से अपना पिण्ड छुड़ा लो।

संकल्प करके बैठो कि हम अब ज्ञानमुद्रा में, ʹૐʹ की पावन ध्वनि के साथ वर्त्तमान घड़ियों का पूरा का आदर करेंगे। मन कुछ देर टिकेगा… फिर इधर-उधर के विचारों की जाल बुनने लग जायेगा। दीर्घ स्वर से ʹૐʹ की ध्वनि करके मन को पुनः खींचकर वर्त्तमान में लाओ। मन को प्यार से, पुचकार से समझाओ। 8-10 बार ʹૐʹ की ध्वनि करके शान्त हो जाओ। शऱीर के भीतर वक्षस्थल में तालबद्ध धड़कते हुए हृदय को मन से निहारते रहो…. निहारते रहो…. मानो शरीर को जीने के लिए उसी धड़कन के द्वारा विश्व-चैतन्य से सत्ता-स्फूर्ति प्राप्त हो रही है। हृदय की उस धड़कन के साथ ʹૐ….. राम…..ʹ मंत्र का अनुसंधान करते हुए मन को जोड़ दो। हृदय की धड़कन के रूप में हर क्षण अपने को प्रकट करने वाले उस सर्वव्यापक परमात्मा को स्नेह करते जाओ। हमारी शक्ति को क्षीण करने वाली, हमारा आत्मिक खजाना लूटकर हमें बेहाल करने वाली भूतभविष्य की कल्पनाएँ हृदय की इन वर्त्तमान धड़कनों का आदर करने से कम होने लगेंगी। हृदय में प्यार व आनंद उभरता जायेगा। जैसे मधुमक्खी सुमधुर सुगंधित पुष्प पाकर चूसने के लिए वहाँ चिपक जाती है वैसे ही चित्त रूपी भ्रमर को परमात्मा से प्यार प्रफुल्लित होते हुए अपने हृदयकमल पर बैठा दो, दृढ़ता से चिपका दो। अपने को वृत्तियों से बचाकर निःसंकल्पावस्था का आनंद बढ़ाते जाओ। मन विक्षेप डाले तो बीच-बीच में ૐ का पावन गुँजन करके उस आनंद-सागर में मन को डुबाते जाओ। जब ऐसा निर्विषय निःसंकल्प अवस्था में आनंद आने लगे तो समझो यही आत्मदर्शन हो रहा है क्योंकि परमात्मा आनंदस्वरूप है।

इस आत्मध्यान से, आत्मचिन्तन से भोक्ता की बर्बादी रूकती है। भोक्ता स्वयं आनंदस्वरूप परमात्मामय होने लगता है, स्वयं परमात्मा होने लगता है। परमात्मा होना क्या है…. अनादि काल से परमात्मा था ही यह जानने लगता है।

ठीक से अभ्यास करने पर कुछ ही दिनों में आनंद और अनुपम शान्ति का एहसास होगा। आत्मबल की प्राप्ति होगी। मनोबल व बुद्धिबल में वृद्धि होगी। चित्त के दोष दूर होंगे। अपने अस्तित्त्व का बोध होने मात्र से आनंद आने लगेगा। ध्यान-भजन-साधना से अपनी योग्यता ही बढ़ाना है। परमात्मा एवं परमात्मा से अभिन्नता सिद्ध किये हुए सदगुरु को आपके हृदय में आत्मखजाना देने में देर नहीं लगती। बस, साधक को अपनी योग्यता का विकास करने भर की देर है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 26,19 अंक 53

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नासमझी है दुःखों का घर


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

यह भी कैसी विचित्र बात है कि सभी दुःखों और परेशानियों को मिटाना चाहते हैं लेकिन फिर भी हर दिन बंधन बढ़ाते जा रहे हैं, परेशानियों को पोसते जा रहे हैं। मुक्ति सभी चाहते हैं किन्तु मुक्ति पाने की मुक्ति से दूर भागते हैं।

कुछ वर्ष पहले की बात हैः किसी व्यक्ति ने आकर मुझसे कहाः “बापू ! इतने सारे लोग भजन कर रहे हैं, एक मैं नहीं करूँ तो क्या घाटा होगा ? मुझे मुक्ति नहीं चाहिए।”

उसकी बात सुनकर मुझे हँसी आयी क्योंकि वह सरलता से बोल रहा था। मैंने कहाः “अच्छा, मुक्ति नहीं चाहिए किन्तु सुख तो चाहते हो न ? परेशानियाँ तो मिटाना चाहते हो न ?”

उसने कहाः “जी।”

“तो फिर हमारे ये सारे प्रयास किसलिये हैं ? हम कहाँ कहते हैं कि तुम मोक्ष पा लो। हम तो यही चाहते हैं कि तुम्हारी परेशानियाँ मिट जायें और परेशानी मिटाना ही तो मोक्ष है। छोटी परेशानी मिटाने में कम मेहनत है, बड़ी परेशानी के लिये ज्यादा, जन्म-मरण की परेशानी मिटाने के लिए आत्मज्ञान की मेहनत करनी पड़ती है।”

यदि थोड़ी-थोड़ी परेशानियों, दुःखों, बंधनों से थोड़ समय के लिए छूटना चाहते हो तो थोड़ा ज्ञान, थोड़ा पुरुषार्थ और थोड़ा सुख ही काफी है और यदि सदा मुक्ति चाहिए, पूर्ण निर्दुःख, पूर्ण निर्बन्ध, पूर्ण सुख चाहिए तो पूर्ण ज्ञान के लिए पूर्ण पुरुषार्थ करना ही चाहिए।

दुःख कोई नहीं चाहता। मुक्ति नहीं चाहते तो क्या बंधन चाहते हो ? तुम्हें कोई जेल में डाल दे, कोई तुम्हारे पर आदेश चलाये, पत्नी तुम्हें आँखें दिखाये तो क्या तुम्हें अच्छा लगता है ? नहीं, क्योंकि तुम स्वतंत्रता चाहते हो, मुक्ति चाहते हो और मुक्ति पानी है तो फिर ध्यान भजन, जप, सेवा-स्वाध्याय भी करना पड़ेगा। मुक्ति की मंजिल तक पहुँचना है तो उसकी राह पर तो चलना ही होगा।

अनेकों को ऐसा लगता है कि ʹभाई ! हममें तो भगवान के रास्ते चलने की ताकत नहीं है, हमें ज्ञान नहीं चाहिए….ʹ ज्ञान नहीं चाहिए, मुक्ति नहीं चाहिए तो क्या मुसीबतें चाहिए ? दुःख चाहिए ? यह तो नासमझी है। आदमी तमोगुण में आ जाता है तब कहता है कि ʹहमें ईश्वर से क्या लेना देना ? संत-वंत कुछ नहीं, पुण्य-वुण्य कुछ नहीं।ʹ तो पाप करके भी तो तुम सुख ही चाहते हो न ? यदि पाप करने में सुख होता तो सभी पापी आज मजे में ही होते, अशान्त और दुःखी न होते और मरने के  बाद प्रेत या पशु होकर न भटकते, मुक्त हो जाते, शाश्वत स्वरूप से एक हो जाते।

सुख पाप में नहीं, सुख वासना में नहीं, सुख इच्छाओं की पूर्ति में नहीं वरन् सुख है मुक्ति में, सुख है मुक्ति पाये हुए ब्रह्मवेत्ताओं के श्रीचरणों में। इच्छा वासना की निवृत्ति में परम सुख है।

मैंने सुना है। एक बार हनुमानप्रसाद पोद्दार और जयदयाल गोयन्द का आपस में चर्चा कर रहे थेः “आजकल तो कहलाने लगे बड़े ज्ञानी, बड़े संन्यासी… पहले लोग कितना-कितना तप करते थे। इन्द्र ने 108 वर्ष तक ब्रह्माजी की सेवा की, तब ब्रह्मज्ञान मिला। और आज…? घर छोड़कर बन गये साधु-संन्यासी और लिख देंगेः 1008 स्वामी फलानानंद जी…”

तब एक किसान ने उठकर पोद्दार जी से कहाः “भाई जी ! 108 वर्ष तक इन्द्र ने ब्रह्मा जी की सेवा की, तब ज्ञान मिला, तो 108 वर्ष देवताओं के कि मनुष्य के 108 वर्ष ? अगर देवताओं के वर्ष गिनते हो तो उनकी आयुष्य तो 100 वर्ष से अधिक नहीं होती और अगर मनुष्य के 108 वर्ष गिनते हो तो देवताओं के 108 दिन से अधिक नहीं होते।”

तब हनुमानप्रसाद पोद्दार को हुआ कि किसान के वेष में भी ये कोई पहुँचे हुए महात्मा लगते हैं। उनकी सात्त्विक श्रद्धा थी न !

एक बार पोद्दार जी के मुख से निकल गयाः “जो मिर्ची का अचार नहीं छोड़ सकते, जो चाय नहीं छोड़ सकते, जो दो वक्त का भोजन नहीं छोड़ सकते, वे ब्रह्मज्ञान कैसे पा सकते हैं ?”

पहले वे इस प्रकार की आलोचना किया करते थे। साधना काल में इस प्रकार का कभी हो जाता है उऩकी इस बात को अखंडानंद सरस्वतीजी ने सुन लिया। वे भिक्षा लेने पोद्दार जी के घर। उनकी धर्मपत्नी ने बड़े प्रेम से भिक्षा दी। तब अखंडानंदजी ने कहाः “बहन जी ! मिर्ची का अचार है ?”

धर्मपत्नी ने कहाः “हाँ महाराज है।”

“अच्छा, तो दो-तीन टुकड़े दे दो।”

धर्मपत्नी ने अचार दिया। तब पुनः अखंडानंदजी बोलेः “बहन जी ! भाई जी घर पर हैं ?”

“जी हाँ महाराज ! भीतर के कक्ष में कुछ लेखन कार्य कर रहे हैं।”

“अच्छा ! जरा भाई जी को बुलाना।”

भाई जी बाहर आये और आकर प्रेम व श्रद्धा से प्रणाम कियाः “महाराज ! नमो नारायणाय।

अखंडानंद जीः नमो नारायणाय। सेठजी ! आपने प्रवचन में कहा थाः ʹअचार चाहिए, खिचड़ी चाहिए, चाय चाहिए… जो ʹचाहिए-चाहिएʹ में लगे हैं और अपने को ब्रह्मज्ञानी मानते हैं वे क्या ब्रह्मज्ञानी होते हैं ? जो दो समय का भोजन नहीं छोड़ सकते, वे क्या ब्रह्मज्ञान पा सकते हैं ?ʹ

….. तो जिन्हें वास्तव में ब्रह्म परमात्मा का अनुभव हो गया है उनके लिए सेठजी ! मैं पूछता हूँ कि कमबख्त दो मिर्चियाँ, क्या उऩकी ब्रह्मनिष्ठा के स्वाद को कम कर देगी ? क्या अचार की ये दो मिर्चियाँ उऩके परमात्मज्ञान के रस को छीन लेगी ?”

तब हनुमानप्रसाद पोद्दार जी हाथ जोड़ते हुए बोलेः “महाराज ! क्षमा कीजिए। आप जैसों के आगे तो हम नतमस्तक हैं।”

जिनको ब्रह्म-परमात्मा का अनुभव हो गया है उनके लिए मिर्ची का अचार तो क्या, छप्पन पकवान तो क्या देवताओं के भोग भी नीरस हैं। वे उनको आसक्त नहीं कर सकते। ऐसे दिव्य ब्रह्मज्ञान के रस का वे आस्वाद कर चुके होते हैं कि जिसके आगे ब्रह्मलोक के सुख तक फीके पड़ जाते हैं तो मनुष्य लोक के तुच्छ में वे क्या आसक्त होंगे ? जिनको आत्मा-परमात्मा का शुद्ध अनुभव हो जाता है, उनके लिए संसार के सुख-दुःख, ऊँचाई-नीचाई कोई मायने नहीं रखती क्योंकि उऩ्होंने अपने शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वरूप को जान लिया है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 50

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