Tag Archives: Parva Mangalya

Festival Spl

सर्प में भी भगवद्बुद्धि की प्रेरणाः नागपंचमी


नागपंचमी का त्यौहार श्रावण शुक्ल पंचमी को मनाया जाता है । इस दिन नागों की पूजा की जाती है और उनकी प्रसन्नता के लिए बाँबी के पास दुग्धादि पदार्थ रखने का शास्त्रों का विधान है । सर्पदंश के भय से बचने के लिए लोग नागों का पूजन करते हैं, सर्प में परमात्म-भाव से भी पूजन करते हैं ।

जब से सृष्टि का इतिहास हमारे सामने आता है तब से ही नागों की गौरव-गरिमा दिग्दिगंत में व्याप्त दिखायी देती है । ‘वराह पुराण’ में आता है कि आज के दिन ब्रह्मा जी ने अपने प्रसाद से शेषनाग को विभूषित किया था और उनकी पृथ्वी धारण करने की सेवा के लिए जनता ने उनका अभिनंदन किया था । उसी समय से यह त्यौहार नाग जाति के प्रति श्रद्धा का प्रतीक बना है ।

भारतीय संस्कृति में नागों को प्रारंभ से ही एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । भगवान विष्णु उन्हे शय्या बनाकर विश्व-भरण का कार्य सम्पादन करते हैं । अमृतलाभ के लिए किये जाने वाले समुद्रमंथन जैसे महान कार्य में रस्सी का काम चलाने के लिए नागराज वासुकी द्वारा अपना शरीर समर्पित करना यह तो जगत्प्रसिद्ध है । भगवान शंकर तो ‘नागेन्द्रहार’ कहलाते हैं । वेदों की अनेक ऋचाओं में नागों की स्तुति एवं पूजा का विधान पाया गया है । भारत का कोई प्रांत, कोई कोना ऐसा नहीं है जिसमें नागों की पूजा न होती हो ।

नाग-पूजा किसलिये की जाती है ?

नागों के विषय में यह आम धारणा है कि यह एक बड़ा भयंकर जीव है, जो देखते ही मनुष्य को काट खाता है परंतु यह धारणा सत्य नहीं है । सर्पों की बहुत कम प्रजातियाँ जहरी होती हैं और जहरी सर्प भी प्रायः तभी काटते हैं जब उन्हें छेड़ा जाता है या दबाया जाता है । मनुष्य यदि जंगल, खेत में भलीभाँति देखकर चले तो कोई कारण नहीं है कि सर्प उसे काटे ही । इन भ्रांत धारणाओं का हमारे हृदय पर ऐसा बुरा असर पड़ा है कि हमने उसे मनुष्य का जन्मजात शत्रु समझ लिया है और ज्यों ही हम उसे देखते हैं त्यों ही मन में भय का संचार हो जाता है और तुरंत ही ध्यान जाता है कि इसे मारने के लिए हमारे पास कोई डंडा वगैरह है या नहीं । ज्यों ही हमारे मन में इसके विनाश की भावना उठी कि हमारे श्वासोच्छवास के रास्ते यही भावना उसके हृदय में भी उत्पन्न हो जाती है । फलतः हमारी दुर्भावना ही उसे हिंसक बना देती है ।

नाग-पूजा द्वारा सर्पों के प्रति बनी इस दुर्भावना और भ्रांति का निराकरण किया जाता है । इस दिन नागों को दूध, सुगंधित पुष्प चढ़ाकर श्रद्धा-भक्ति से उनकी देवता के रूप में पूजा की जाती है । स्तुति के रूप में उनके गुणों का वर्णन सुनकर हमारे हृदय में उनके प्रति विद्यमान दुर्भावना क्षीण हो जाती है, जिससे हम उन्हें शत्रु नहीं अपितु ईश्वरीय सृष्टि का अपने जैसा ही प्राणी समझने लगते हैं । तब हमारे मन की वह अधीरता और घबराहट जो उसे देखने के साथ ही पैदा होती थी, सर्वथा शांत हो जाती है । लोगों के मन से उस भय-भावना का निराकरण और सद्भाव की जागृति नागपंचमी का उद्देश्य हो सकता है । भय से हमारे शरीर में हानिकारक द्रव्य बनते हैं और सद्भाव से हितकारी भगवत्प्रसादजा मति देने वाले रसायन बनते हैं । नागों के पूजन में कितना उदार दृष्टिकोण छिपा है ! कितना अद्भुत मनोविज्ञान है !

सिंधी जगत में एक कथा प्रचलित हैः

किसी निर्धन कन्या को धनप्राप्ति की खूब लालसा थी । एक दिन उसे स्वप्न में सर्पदेवता के दर्शन हुए और उन्होंने कहाः “फलानी जगह पर धन गड़ा हुआ है, तू वहाँ आकर ले जा । मुझे कोई बहन नहीं है और तुझे कोई भाई नहीं है तो आज से तू मेरी बहन और मैं तेरा भाई ।”

सर्पदेवता द्वारा बतायी गयी जगह पर उसे बहुत धन मिला और वह खूब धनवान हो गयी । फिर तो वह प्रतिदिन अपने सर्प भाई के पीने के लिए दूध रखती । सर्पदेवता आकर दूध में पहले अपनी पूँछ डालते और बाद में दूध पीते । एक दिन जल्दबाजी में बहन ने दूध ठंडा किये बिना ही रख दिया । सर्प ने आकर ज्यों ही अपनी पूँछ डाली तो गर्म दूध से उसकी पूँछ जल गयी । सर्प को विचार आया कि “मैंने बहन को इतना धन दिया किंतु वह दूध का कटोरा भी ठीक से नहीं देती है । अब उसे सीख देनी पड़ेगी ।’

बहन श्रावण महीने में अपने कुटुम्बियों के साथ कोई खेल खेल रही थी । सर्प को हुआ कि ‘इसके पति को यमपुरी पहुँचा दूँ तो इसे पता चले कि लापरवाही का बदला कैसे होता है ।’

सर्पदेवता उसके पति के जूतों के करीब छिप गये । इतने में तो खेल-खेल में कुछ भूल हो गयी । किसी बहन ने कहाः “यहाँ चार आने नहीं रखे थे ।”

सर्प की बहन ने कहाः “सत्य कहती हूँ कि यहीं रखे थे । मैं अपने प्यारे भाई सर्पदेवता की सौगंध खाकर कहती हूँ ।”

यह सुनकर सर्प को हुआ कि इसे मेरे लिए इतना प्रेम है ! जिस तरह लोग भगवान अथवा देवता की सौगंध खाते हैं, वैसे ही यह मेरी सौगंध खाती है । अतः वे प्रकट होकर बोलेः “तूने तो भूल की थी पर मैं और भी बड़ी भूल करने जा रहा था लेकिन मेरे प्रति तेरा जो प्रेम है उसे देखते हुए मैं तुझे वरदान देता हूँ कि आज के दिन जो भी बहन मुझे याद करेगी उसका पति अकाल मृत्यु और सर्पदंश का शिकार नहीं होगा ।” तब से बहनें आज के दिन व्रत तथा नागदेवता का पूजन करती हैं ।

नागपंचमी मनाने का कारण चाहे जो भी हो किंतु यह बात तो निश्चित है कि हमारी संस्कृति हिंसक प्राणियों के प्रति भी वैरवृत्ति न रखने की, उनके प्रति सद्भाव जगाने की और उन्हें अभयदान देने की ओर संकेत करती है । नागों को दूध पिलाने की  एवं उनमें भी अपने परमात्मा को निहारने की दृष्टि देना, यह सनातन धर्म कि विशेषता है । भगवान शिव के गले में व भगवान गणेश की कमर में सर्प एवं भगवान विष्णु की शय्या के शेषनाग इसी बात का प्रमाण हैं कि अगर कोई नागदेव को भी अपने ही आत्मदेव की सत्ता से चलने वाला मानकर प्रेम से निहारता है तो चाहे कैसा भी भयंकर विषधर हो उसके सामने अपना विषैला स्वभाव छोड़कर पालतू प्राणी की तरह हो जाता है । मनुष्य के अलावा जितने भी प्राणी हैं, उन्हें भी जीने का हक है, फिर भले उनके संस्कार उनकी प्रकृति के अनुरूप हों । प्रकृति और संस्कार उनकी में तो परिवर्तन होता है किंतु इनका जो साक्षी है उसे निहारकर जो अपने आत्मा-परमात्मा में जाग जाता है वह शिवस्वरूप हो जाता है, निर्भय स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है । जो हमें डँसकर मार सकता है, ऐसे सर्प भी भगवान को देखने की प्रेरणा इस उत्सव से मिलती है । कैसी सुंदर व्यवस्था है हमारे सनातन धर्म में, जिससे मौत जीवन में, द्वेष प्रेम में और मनमुखता मुक्तिदायी विचारों में बदल सकती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 200

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

नागपंचमी


‘नागपंचमी’ अर्थात् नागदेवता के पूजन का दिवस…. वैसे तो कुछ ऐसी भी जातियाँ हैं जो वर्षभर नागदेवता की पूजा करती हैं, गुजरात में वह जाति ‘रबारि-देसाई’ कही जाती है। किंतु नागपंचमी के दिन तो सभी लोग नागदेवता की पूजा करते हैं।
विचारकों का कहना है कि पूर्वकाल में जब मनुष्य ने खेती करना आरंभ किया था, तब खेत में छिड़की जाने वाली फसलरक्षक दवाओं तथा दवा छिड़कने के साधनों का विकास नहीं हुआ था। उस समय खेती को नष्ट करने वाले चूहों तथा अन्य छोटे जीव-जन्तुओं को नागदेवता स्वाहा कर जाते थे और खेती की रक्षा हो जाती है। इसके कारण मानव-समाज अपने को उनका ऋणी मानता था।
इसके अलावा खेत में हल चलाते वक्त कभी-कभार नाग अथवा नागिन हल के नीचे आ जायें तो वे बदला लिया बिना नहीं रहते, ऐसी परंपरागत कथा-वार्ता सभी सुनते आये हैं। इसलिए साँप के वैर से बचने के लिए वर्ष में एक दिन उनकी पूजा करने का विधान किया गया। वही दिन नागपंचमी कहलाता है।
नागपंचमी के सम्बंध में कई प्रथाएँ प्रचलित हैं-
किसी गाँव का एक किसान जब अपना खेत जोत रहा था तब उसके हल में सर्पिणी की पूँछ आ गयी। सर्पिणी तो भाग गयी लेकिन उसके तीन बच्चे मर गये। उस सर्पिणी ने बदला लेने के लिए रात्रि में किसान के तीन बच्चों को डँस लिया।
यह सुनकर पड़ोस के गाँव में ब्याही हुई किसान की बड़ी कन्या रोती-बिलखती पिता के घर आयी। उस रात्रि में भी सर्पिणी किसान के बच्चों को डँसने के लिए आयी किंतु अपने भाई-बहनों के शोक में व्याकुल किसान की बड़ी पुत्री को नींद नहीं आ रही थी. अतः उसने सर्पिणी को देख लिया। पहले तो वह घबरा गयी लेकिन बाद में सर्पिणी के लिए दूध की कटोरी लेकर आयी और पिता के अपराध के लिए क्षमा-प्रार्थना करने लगी। लड़की द्वारा इस प्रकार स्वागत करने पर सर्पिणी का क्रोध प्रेम में बदल गया और उसने अपने द्वारा डँसे गये बालकों का जहर वापस खींच लिया।
तबसे नागपंचमी के दिन नाग के पूजन की परंपरा चल पड़ी – ऐसा कहा जाता है।
सिंधी जगत में भी एक कथा प्रचलित हैः
किसी निर्धन महिला की एक कन्या थी और उस कन्या को धनप्राप्ति की खूब लालसा थी। एक दिन उसे स्वप्न में सर्पदेवता के दर्शन हुए तथा उन्होंने कहाः
“फलानी जगह पर धन गड़ा हुआ है, तू वहाँ आकर ले जा। मुझे कोई बहन नहीं है और तुझे कोई भाई नहीं है तो आज से तू मेरी बहन और मैं तेरा भाई !”
सर्पदेवता द्वारा बतायी जगह पर उसे बहुत धन मिला और वह खूब धनवान हो गयी। फिर तो वह प्रतिदिन अपने सर्प भाई के पीने के लिए दूध रखती।
सर्पदेवता आकर दूध में पहले अपनी पूँछ डालते और बाद में दूध पीते। एक दिन जल्दबाजी में बहन ने दूध ठंडा किये बिना ही रख दिया। सर्प ने आकर ज्यों ही अपनी पूँछ डाली तो गर्म दूध से उसकी पूँछ जल गयी। सर्प को विचार आया, ‘मैंने बहन को इतना धन दिया किंतु वह दूध का कटोरा भी ठीक से नहीं देती है। अब इसे सीख देनी पड़ेगी।’
बहन श्रावण महीने में अपने कुटुंबियों के साथ कोई खेल खेल रही थी। सर्प को हुआ कि ‘इसके पति को यमपुरी पहुँचा दूँ तो इसे पता चले कि लापरवाही का बदला कैसा होता है ?’
सर्पदेवता उसके पति के जूतों के करीब छिप गये। इतने में तो खेल खेल में कुछ भूल हो गयी। किसी बहन ने कहाः
“यहाँ चार आने नहीं रखे थे।”
सर्प की बहन ने कहाः “सत्य कहती हूँ कि यहीं रखे थे। मैं अपने प्यारे भाई सर्पदेवता की सौगंध खाकर कहती हूँ।”
यह सुनकर सर्प को हुआ कि इसे मेरे लिए इतना प्रेम है ! जिस तरह लोग भगवान अथवा देवता की सौगंध खाते हैं, वैसे ही यह मेरी सौगंध खाती है ! अतः वे प्रकट होकर बोलेः
“तूने तो भूल की थी और मैं भी बड़ी भूल करने जा रहा था। परंतु मेरे प्रति तुम्हारा जो प्रेम है उसे देखते हुए मैं तुझे वरदान देता हूँ कि आज के दिन जो भी बहन मुझे याद करेगी उसके पति अकाल मृत्यु और सर्पदंश के शिकार नहीं होंगे।”
बहनें आज के दिन व्रत तथा नागदेवता का पूजन करती हैं।
वेद की ऋचा में भी सर्प की स्तुति आती है। भगवान शिवजी के आभूषण तो सर्प ही हैं और गणपति जी भी सर्प को धारण करते हैं। लक्ष्मण जी और बलराम जी को शेषावतार माना जाता है। नागों में वासुकि नाग और शेषनाग अपने आत्मदेव को जानते हैं, अतः उनकी पूजा होती है।
पुराणों में आता हैः
राजा परीक्षित की मृत्यु तक्षक नाग के डँसने से हुई थी। परीक्षित के पुत्र जन्मेजय को हुआ कि ‘पिता को मारने वाले शत्रु से यदि बदला न लिया तो मैं पुत्र किस बात का ?’ उसने ब्राह्मणों से सर्प-यज्ञ आरंभ करवाया। मंत्र का उच्चारण करके यज्ञ में आहूतियाँ दी जाने लगीं, सर्प खिंच-खिंचकर हवनकुंड में गिरने लगे।
तक्षक नाग को मंत्रशक्ति के प्रभाव का पता चला तब उसने इंद्र की शरण ली। इंद्र ने तक्षक की रक्षा के लिए ऋषियों से प्रार्थना की, तब बृहस्पति जी के समझाने से जन्मेजय ने सर्प यज्ञ बंद करवाया।
इस प्रकार अलग-अलग देशों, राज्यों, प्रांतों, जातियों में नागपंचमी के सम्बंध में अलग-अलग कथाएँ प्रचलित हैं।
जो मनुष्य को अपने दंश से यमपुरी पहुँचा देने में समर्थ है ऐसे सर्प के प्रति भी मानव के चित्त में द्वेष न रहे, मनुष्य उससे डरे नहीं, वरन् भय तथा द्वेष जिस प्रभु की सत्ता से दिखते हैं वही प्रभु सर्प में भी हैं – इस भावना से नागपंचमी के दिन नाग की पूजा करें। नागपंचमी को मनाने का ऐसा आशय भी हो सकता है और तत्व की दृष्टि से देखा जाय तो यह सही भी है। भगवान श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद्भगवदगीता’ में कहा हैः
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्येशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रूढानि मायया।।
‘शरीररूपी यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।’ (गीताः 18.61)
जो हमें डँस कर मार सकता है ऐसे सर्प में भी भगवान को देखने की प्रेरणा इस उत्सव से मिलती है। कैसी सुंदर व्यवस्था है हमारे सनातन धर्म में, जिससे मौत जीवन में, द्वेष प्रेम में और मनमुखता मुक्तिदायी विचारों में बदल सकती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 116
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ