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Prerak Prasang

ईश्वर से आँख-मिचौनी का खेल !


ईश्वर से आँख-मिचौनी का खेल हो रहा है । वह छिपा हुआ है, तुम ढूँढ रहे हो । प्रलयकाल में तुम छिपते हो, वह ढूँढ निकालता है । सृष्टिकाल में वह छिपता है, तुम ढूँढ रहे हो । वह कहाँ छिपा है ? वह ढूँढने वाले में छिपा है । ईश्वर है, यहीं है, अभी है । इस शरीर के भीतर जो सबसे स्थायी चीज है, उससे मिलकर रहता है । ईश्वर छिपेगा कहाँ ? जो चीज क्षण-क्षण में बदलती है, यदि ईश्वर उसमें छिपेगा तो पकड़ा जायेगा । जो चीज क्षण-क्षण में नहीं बदलती है, उसमें ईश्वर छिपा हुआ है । ईश्वर ने अपने छिपने के लिए जो लिहाफ (रजाई) बनाया है, जो खोल बनाया है,  वह तुम स्वयं हो । अपने-आप में ढूँढो ।

एक सेठ था । वह यात्रा कर रहा था । उसके पास बहुत रुपया था । एक चोर ने भाँप लिया कि सेठ के पास बहुत रुपया है । वह रेलगाड़ी में उसके साथ हो गया । सेठ के डिब्बे में ही चोर ने अपनी सीट रिजर्व करा ली ।  सेठ भी समझ गया था कि यह चोर है । अब सेठ ने दिन में तो रुपये निकाल के उसके सामने गिने और अपने तकिये के नीचे रख दिये । शाम को जब चोर शौचालय में गया तब उसके तकिये में रुपये घुसेड़ दिये । रात को जब सेठ शौचालय में गया, तब चोर ने सेठ के तकिये के नीचे रुपये ढूँढे किंतु कुछ भी हाथ नहीं लगा । जब सेठ सो गया तब चोर ने रुपये खोजे परंतु तब भी नहीं मिले । चोर बड़ा ही परेशान था । उसने सेठ को बेहोश करके बहुत देर तक रुपये ढूँढे लेकिन निराशा ही हाथ लगी । सेठ के पास रुपये हों तब मिलें, रुपये तो चोर के तकिये में छिपाये गये थे । कोलकाता-मुंबई का लम्बा सफर बीत गया, रेलगाड़ी से उतरने का समय हुआ ।

चोर ने कहाः ″सेठ मैंने तुम्हें मान लिया । मैं हूँ चोर । रुपये चुराने के लिए तुम्हारे साथ लगा था । दिन में तो तुम्हारे पास हजारों रुपये देखे और रात में कुछ भी नहीं मिला । बात क्या है ? आखिर तुम ये रुपये रखते कहाँ हो ?″

सेठ हँसने लगा । वह बोलाः ″भैया ! मैं कोलकाते में ही समझ गया था कि तुम चोर हो । बात कुछ नहीं है । मैंने सारे-के-सारे रुपये शाम को जब तुम शौचालय में गये थे, तब तुम्हारे तकिये में रख दिये थे । फिर जब सुबह गये थे तब निकाल लिये थे और अपने तकिये में रख दिये थे ।″ चोर ने लम्बी ठंडी साँस लेते हुए कहाः ″राम राम ! मेरे तकिये में हजारों रुपये आये और चले भी गये । मुझे नहीं  मिले । वाह ! सेठ तुमने छिपाने में कमाल कर दिया ।″

ईश्वर अपने को कहाँ छिपाता है ? ईश्वर अपने को तुम्हारे में छिपाये हुए है । ईश्वर अपने को आँख में नहीं छिपाता, नाक में नहीं छिपाता । वह अपने को तुम्हारे मैं में छिपाता है । तुम ढूँढते हो कि ‘ईश्वर कहीं मिल जाये’ और वह तुम्हारे हृदय में छिपा हुआ है । तुम अपने हृदयस्थ ईश्वर को ढूँढ नहीं सके । उसे प्राप्त नहीं कर सके । तुम ऐसे कच्चे खिलाड़ी हो कि अपने ही हृदय में विराजमान ईश्वर को पहचान नहीं सके । क्या खेल है तुम्हारा ? जरा उसका खेल तो देखो । अद्भुत खिलाड़ी है । गजब का खेल है ।

आप ही अमृत (आत्मा), आप अमृतघट(शरीर), आप ही पीवनहारी (आत्मरस का पान करने वाली वृत्ति)

आप ही ढूँढे (ढूँढने की क्रिया), आप ढूँढावे (ढूँढने वाला), आप ही ढूँढनहारी (परमात्मा को ढूँढने वाली वृत्ति)

आपन खेलु (खेल) आपि करि देखै ।

खेलु संकोचै (समेटे) तउ (तब) नानक एकै (एक परमात्मा ही रह जाता है) ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 24,26 अंक 345

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मन को युक्ति से सँभाल लो तो बेड़ा पार हो जायेगा


एक बार बीरबल दरबार में देर से आये तो अकबर ने पूछाः ″देर हो गयी, क्या बात है ?″

बीरबल ने कहाः ″हुजूर ! बच्चा रो रहा था, उसको जरा शांत कराया ।″

″…तो बच्चे को शांत कराने में दोपहर कर दी तुमने ! कैसे बीरबल ?″

″हुजूर बच्चे तो बच्चे होते हैं । राजहठ, स्त्रीहठ, योगहठ, बालहठ…. जैसे राजा का हठ होता है वैसे ही बच्चों का होता है जहाँपनाह !″

अकबरः ″बच्चों को रिझाना क्या बड़ी बात है !″

बीरबलः हुजूर ! बड़ी कठिन बात होती है ।″

″अरे, बच्चे को तो यूँ पटा लो ।″

″नहीं पटता महाराज ! बच्चा हठ ले ले तो फिर देखो । आप तो मेरे माई-बाप हैं, मैं बच्चा बन जाता हूँ ।″

″हाँ चलो, तुमको हम राजी कर दें ।″

बीरबल रोयाः ″पिताजी !…. पिता जी ! ऐंऽऽऽ….ऐंऽऽऽ…″

अकबरः ″अरे, क्या चाहिए ?″

ऊँऽऽऽ…. ऊँऽऽऽ…

″अरे, क्या चाहिए ?″

″मेरे को हाथी चाहिए ।″

अकबर ने महावत को बोलाः ″हाथी ला के खड़ा कर दो ।″

बीरबल ने फिर रोना चालू कर दियाः ″ऐंऽऽऽ ऐंऽऽऽ ऐँऽऽऽ

″क्या है ?″

″मेरे को देगचा (खाना पकाने का एक छोटा बर्तन) ला दो ।″

″अरे, चलो एक देगचा मँगा दो ।″

देगचा लाया गया ।

अकबर बोलाः ″देगचा ला दिया… बस ?″

″ ऊँऽऽऽ…. ऊँऽऽऽ…″

″अब क्या है ?″

″हाथी देगचे में डाल दो ।″

अकबर बोलता हैः ″यह कैसे होगा !″

बोलेः ″डाल दो… ।″

″अरे, नहीं आयेगा ।″

″नहीं, आँऽऽ… आँऽऽ…″

बच्चे का हठ… और क्या है ! अकबर समझाने में लगा ।

बीरबलः ″नहीं ! देगचे में हाथी डाल दो ।″

अकबर बोलाः ″भाई ! मैं तो तुमको नहीं मना सकूँगा । अब मैं बेटा बनता हूँ, तुम बाप बनो ।″

बीरबलः ″ठीक है ।″

अकबर रोया । बीरबल बोलता हैः ″बोलो बेटे अकबर ! क्या चाहिए ?″

अकबरः ″हाथी चाहिए ।″

बीरबल ने नौकर को कहाः ″चार आने के खिलौने वाले एक नहीं, दो हाथी ले आ ।″

नौकर ने लाकर रख दिये ।

″ले बेटे ! हाथी ।″

″ऐंऽऽऽ ऐंऽऽऽ ऐंऽऽ देगचा चाहिए ।″

″लो ।″

बोलेः ″इसमें हाथी डाल दो ।″

बीरबलः ″एक डालूँ कि दोनों के दोनों रख दूँ ?″

बीरबल ने युक्ति से बच्चा बने अकबर को चुप करा दिया । ऐसे ही मन भी बच्चा है ।मन को देखो कि उसकी एक वृत्ति ऐसी उठी तो फिर वह क्या कर सकता है । उसको ऐसे ही खिलौने दो जिन्हें आप सेट कर सको । उसको ऐसा ही हाथी दो जो देगचे में रह सके । उसकी ऐसी ही पूर्ति करो जिससे वह तुम्हारी लगाम में, नियंत्रण में रह सके । तुम अकबर जैसा करते हो लेकिन बीरबल जैसा करना सीखो । मन बच्चा है, उसके कहने में चलोगे तो गड़बड़ कर देगा । उसके कहने में नहीं उसे पटाने में लगो । उसके कहने में लगोगे तो वह अशांत रहेगा । फिर बाप भी अशांत, बेटा भी अशांत । उसको घुमाने में लगोगे तो बेटा भी खुश हो जायेगा, बाप भी खुश हो जायेगा ।

मन की कुछ ऐसी-ऐसी आकांक्षाएँ, माँगें होती हैं जिनको पूरा करते-करते जीवन पूरा हो जाता है । और उनसे सुख मिला तो आदत बन जाती है और दुःख मिला तो उसका विरोध बन जाता है । लेकिन उस समय मन को और कोई बहलाने की चीज़ दे दो । हलका चिंतन करता है तो बढ़िया चिंतन दे दो । हलका बहलाव करता है तो बढ़िया बहलाव दे दो । उपन्यास पढ़ता है तो सत्शास्त्र दे दो, इधर-उधर की बात करता है तो माला पकड़ा दो, किसी का वस्त्र-अलंकार देखकर आकर्षित होता है तो शरीर की नश्वरता का ख्याल करो, किसी के द्वारा किये अपने अपमान को याद करके जलता है तो जगत के स्वप्नत्व को याद करो । मन को ऐसे ही खिलौने दो जिससे वह आपको परेशान न करे । लोग जो मन में आया उसमें लग जाते हैं । मन में आया कि यह करूँ तो कर दिया, मन में आया फैक्ट्री बनाने का तो खड़ी करदी, मन का करते-करते फिर फँस जाओगे, सँभालने की जवाबदारी बढ़ जायेगी और अंत में देखो तो कुछ नहीं, जिंदगी बिनजरूरी आवश्यकताओं में पूरी हो गयी !

इसलिए संत कबीर जी ने कहाः

साँईं इतना दीजिये, जा में कुटुम्ब समाय ।

मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाये ।।

अपनी आवश्यकता कम करो और बाकी का समय जप में, आत्मविचार में, आत्मध्यान में, कभी-कभी एकांत में, कभी सत्कर्म में, कभी सेवा में लगाओ । अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ कम करो तो आप स्वतंत्र हो जायेंगे ।

अपने व्यक्तिगत सुखभोग की इच्छा कम रखो तो आपके मन की चाल कम हो जायेगी । परहित में चित्त को, समय को लगाओ तो वृत्ति व्यापक हो जायेगी । परमात्मा के ध्यान में लगाओ, वृत्ति शुद्ध हो जायेगी । परमात्मा के तत्त्व में लगाओ तो वृत्ति के बंधन से आप निवृत्त हो जायेंगे ।

भाई ! सत्संग में तो हम आप लोगों को किसी प्रकार की कमी नहीं रखते, आप चलने में कमी रखें तो आपकी मर्जी की बात है ।

मन बिनजरूरी माँगें करे और आप वे पूरी करेंगे तो वह आपको पूरा कर देगा (विनष्ट कर देगा ) । जो जरूरी माँग है वह अपने आप पूरी होती है इसलिए गलत माँगें, गलत लालसाएँ करें नहीं और मन करता है तो वे पूरी न करें और हों तो युक्ति से कर लें । जैसे वह नकली हाथी देगचे में डाल दिया । ऐसे ही मन की कोई इच्छा वासना हुई तो उस समय उसके अनुरूप हितकारी व्यवहार करें । समझो बीड़ी पीने की इच्छा है तो कीर्तन में चले गये, किसी को गुस्से से गाली देने की इच्छा है तो उस समय जोर से राम-राम-राम चिल्लाने लग जायें । ऐसा करके युक्ति से मन को सँभाल लो तो बेड़ा पार हो जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 6, 7 अंक 344

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पुरुषार्थी पुरु – पूज्य बापू जी


पुरुषार्थ करना चाहिए । इस लोक में सफल होने के लिए और आत्मा-परमात्मा को पाने में सफल होने के लिए भी पुरुषार्थ चाहिए ।

पुरु नाम का एक लड़का बेचारा महाविद्यालय पढ़ने के दिन देख रहा था । 16 वर्ष की उम्र हुई और एकाएक उसके पिता को हृदयाघात हो गया, वे मर गये । बेटे और माँ पर दुःखों का पहाड़ आ पड़ा । पुरु को एक भाई और एक बहन थी । बड़ा दुःख आ गया, पुरु सोचने लगाः ″अब कौन कमायेगा, घर का खर्चा कैसे चलेगा ? 12वीं अभी पूरी भी नहीं हुई, नौकरी तो मिलेगी नहीं ! क्या करें ?’ पुरु की माँ सत्संगी थी, पति की अंत्येष्टि करवायी । लोग बोलतेः ″तुम अब कैसे जियोगे, क्या खाओगे ?″

बोलेः ″परमेश्वर है ।″ पुरु की माँ ने पुरु को सांत्वना दी और पुरु ने अपनी माँ को ढाढस बँधाया । दो भाई-बहन और तीसरा पुरु, चौथी माँ । माँ घर पर ही थोड़ा बड़ी-पापड़ आदि बनाती । उनमें लगने वाली चीज वस्तु साफ सुथरी, सस्ती व अच्छी लाती । पहले तो पड़ोसी लोग मखौल उड़ाने लगे लेकिन बाद में पड़ोसी भी उनसे ही चीजें खऱीदने लगे । पुरु भी नौकरी की तलाश करता रहा, पढ़ता रहा । डाक विभाग से एक विज्ञापन निकला कि कोई 11वीं पढ़ा हुआ होगा तो उसको यह नौकरी मिल सकती है – क्लर्क को सहायक क्लर्क चाहिए । पुरु  ने उस नौकरी हेतु प्रपत्र (फॉर्म) भर दिया और घर बैठे पढ़कर बी.ए. करने का निश्चय किया । साक्षात्कार (इन्टरव्यू) हुआ, नौकरी मिली । वह जो काम मिले उसको पहले समझता फिर अच्छी तरह तत्परता से लगकर पूरा करता । ऐसा करते-करते उसने डाकघर के प्रधान अधिकारी और वरिष्ठ साहब का भी विश्वास सम्पादन कर लिया । एक तरफ पढ़ता गया, दूसरी तरफ ईमानदारी की सुंदर सेवा से सबका विश्वास सम्पादन करता गया । समय बीतता गया, स्नातक (ग्रेजुएट) हुआ और आगे चल के डाकघर का प्रधान अधिकारी हो गया फिर उससे भी आगे की पदोन्नति हुई ।

लोगों ने कहा कि ‘पुरु तो एक साधारण विधवा का बेटा और इतना आगे !’

पुरु ने कहाः ″भगवान ने आगे बढ़ने के लिए धरती पर जन्म दिया लेकिन कमाकर आगे बढ़ गये तो कई बड़ी बात नहीं है, इस कमाई का सदुपयोग करके सत्यस्वरूप परमात्मा का पाने में भी आगे बढ़ने के लिए मनुष्य जन्म मिला है ।″

″ऐ पुरु ! तुम पोस्ट ऑफिस विभाग के श्रेष्ठ अधिकारी ही नहीं बल्कि एक श्रेष्ठ नागरिक भी हो ।″

पुरु ने कहाः ″श्रेष्ठ नागरिक बनने के लिए श्रेष्ठ सीख चाहिए और वह मुझे सत्संग से, भगवन्नाम के जप और भगवान के ध्यान से मिली है । श्रेष्ठ व्यक्ति वही है जो श्रेष्ठ-में-श्रेष्ठ परमात्मा में विश्रांति पाता है ।″

पुरु वेदांत का सत्संग और आत्मविश्रांति का अवलम्बन लेते हुए आध्यात्मिक जगत में भी बड़ी ऊँचाई को उपलब्ध हुए ।

बड़े-बड़े धनाढ़य, बड़े-बड़े सत्तावान अपने जीवन से नीरसता मिटाने के लिए शराब-कबाब, दुराचार आदि की शऱण लेते हैं । वे मनुष्य धनभागी हैं जो संत-महापुरुषों का सत्संग श्रवण कर आत्मिक उन्नति की कुंजियाँ जान के अपने जीवन को रसमय बना लेते हैं । इससे उनके जीवन में लौकिक उन्नति तो होती ही है, साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति भी होती है । वे देर-सवेर अपनी साक्षीस्वरूप परब्रह्म-परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं, अपने ‘सोऽहम्’ स्वभाव में जग जाते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 344

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