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Sant Charitra

गुरुभक्तियोग की महत्ता – ब्रह्मलीन स्वामी शिवानंद जी


जिस प्रकार शीघ्र ईश्वर दर्शन के लिए कलियुग-साधना के रूप में कीर्तन साधना है, उसी प्रकार इस संशय, नास्तिकता, अभिमान और अहंकार के युग में योग की एक नयी पद्धति यहाँ प्रस्तुत है – गुरुभक्तियोग । यह योग अदभुत है । इसकी शक्ति असीम है । इसका  प्रभाव अमोघ है । इसकी महत्ता अवर्णनीय है । इस युग के लिए उपयोगी इस विशेष योग पद्धति के द्वारा आप इस हाड़-चाम के पार्थिव देह में रहते हुए ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं । इसी जीवन में आप उन्हें अपने साथ विचरण करते हुए निहार सकते हैं ।

साधना का बड़ा दुश्मन रजोगुणी अहंकार है । अभिमान को निर्मूल करने के लिए एवं विषमय अहंकार को पिघलाने के लिए गुरुभक्तियोग सर्वोत्तम साधनमार्ग है । जिस प्रकार किसी रोग के विषाणु निर्मूल करने के लिए कोई विशेष प्रकार की जंतुनाशक दवाई आवश्यक है, उसी प्रकार अविद्या, अहंकार और दुःख-दोषों को मिटाने के लिए गुरुभक्तियोग सबसे अधिक प्रभावशाली, अमूल्य और निश्चित प्रकार का उपचार है । वह सबसे अधिक प्रभावशाली दुःख-दोष और अहंकार नाशक है । गुरुभक्तियोग की भावना में जो सद्भागी शिष्य निष्ठापूर्वक सराबोर होते हैं, उन पर माया और अहंकार के रोग का कोई असर नहीं होता । इस योग का आश्रय लेने वाला व्यक्ति सचमुच भाग्यशाली है क्योंकि वह योग के अन्य प्रकारों में भी सर्वोच्च सफलता हासिल करेगा । उसको कर्म, भक्ति, ध्यान और ज्ञानयोग के फल पूर्णतः प्राप्त होंगे । गुरुप्रीति और गुरुआज्ञा से भरा दिल सहज में ही सफलता पाता है ।

इस योग में संलग्न होने के लिए तीन गुणों की आवश्यकता हैः निष्ठा, श्रद्धा और आज्ञापालन । पूर्णता के ध्येय में सन्निष्ठ रहो । संशयी और ढीले-ढीले मत रहना । अपने स्वीकृत गुरु में सम्पूर्ण श्रद्धा दृढ़ कर लेने के बाद आप समझने लगेंगे कि उनका उपदेश आपकी श्रेष्ठ भलाई के लिए ही होता है । अतः उनके शब्द का अंतःकरणपूर्वक पालन करो । उनके उपदेश का अक्षरशः अनुसरण करो । आप हृदयपूर्वक इस प्रकार करेंगे तो मैं विश्वास दिलाता हूँ कि आप पूर्णता को प्राप्त करेंगे ही । मैं पुनः दृढ़तापूर्वक विश्वास दिलाता हूँ ।

व्यर्थ के संकल्पों से बचने की कुंजी

व्यर्थ के संकल्प न करें । व्यर्थ के संकल्पों से बचने के लिए ‘हरि ॐ……’ के गुंजन का भी प्रयोग किया जा सकता है । ‘हरि ॐ….’ के गुंजन में एक विलक्षण विशेषता है कि उससे फालतू संकल्प-विकल्पों की भीड़ कम हो जाती है । ध्यान के समय भी ‘हरि ॐ…’ का गुंजन करें और शांत हो जायें । मन इधर-उधर भागे तो फिर गुंजन करें । यह व्यर्थ संकल्पों को हटायेगा एवं महा संकल्प (परमात्मप्राप्ति) की पूर्ति में मददरूप होगा ।

(आश्रम से प्रकाशित पुस्तक जीवनोपयोगी कुंजियाँ से)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 25 अंक 201

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भाई मंझ की दृढ़ गुरुभक्ति


जीवन में चाहे कितनी भी विघ्न बाधाएँ आयें और चाहे कितने भी प्रलोभन आयें किन्तु उनसे प्रभावित न होकर जो शिष्य गुरुसेवा में जुटा रहता है, वह गुरु का कृपापात्र बन पाता है । जिसने पूर्ण गुरु की कृपा पचा ली उसे पूर्ण ज्ञान भी पच जाता है । अनेक विषम कसौटियों में भी जिसकी गुरुभक्ति विचलित नहीं होती उसका ही जीवन धन्य है । गुरु अर्जुनदेव जी के पास मंझ नामक एक जमींदार आया और बोलाः “कृपा करके मुझे शिष्य बना लीजिये ।”

गुरु अर्जुनदेव जीः “तुम किसको मानते हो ?”

“सखी सरवर को । हमारे घर पर उनका मंदिर भी है ।”

“जाओ, उनको प्रणाम करके छुट्टी दे दो और मंदिर गिराकर आ जाओ ।”

“जी, जो आज्ञा ।”

मंदिर तोड़ देना कोई मजाक की बात नहीं है किंतु जमींदार की श्रद्धा थी, ‘गुरु की आज्ञा से कर रहा हूँ, कोई बात नहीं’ – यह भाव था, अतः उसने मंदिर तुड़वा दिया । मंदिर तुड़वाने से समाज के लोगों ने उसका बहिष्कार कर दिया और उसकी खूब निंदा करने लगे । इधर जमींदार पहुँच गया गुरु अर्जुनदेवजी के चरणों में । जमींदार की योग्यता को देखकर अर्जुनदेव जी ने उसे दीक्षा दे दी एवं साधना की विधि बतला दी ।

अब वह जमींदार इधर-उधर के रीति-रिवाजों में नष्ट न करते हुए गुरुमंत्र का जप करने लगा, ध्यान करने लगा । उसका पूरा रहन-सहन बदल गया । खेती-बाड़ी में ध्यान कम देने लगा । उसकी एक के बाद एक परीक्षाएँ होने लगीं । उसका घोड़ा मर गया, कुछ बैल मर गये । चोरों  ने उसकी कुछ सम्पत्ति को चुरा लिया । समाज के लोगों द्वारा अब ज्यादा विरोध होने लगा और सभी लेनदारों ने उससे एक साथ पैसे माँगे । जमींदार मंझ ने अपनी जमीन गिरवी रखकर सबके पैसे चुका दिये और स्वयं किसी के खेत में मजदूरी करने लगा । उस समय ब्याज की दर ऐसी थी कि जो जमीन गिरवी रख देता था उसका ऊपर उठना असंभव-सा था । एक समय का जमींदार मंझ अब स्वयं एक मजदूर के रूप में काम करने लगा, फिर भी गुरु के श्रीचरणों में उसकी प्रीति कम न हुई । कुछ समय बाद मंझ को गाँव छोड़कर अपनी पत्नी और बच्चों के साथ अन्य गाँव जाना पड़ा । वह घास काटकर उसे बेचके गुजारा करने लगा । अर्जुनदेव जी जाँच करवायी तो पता चला कि पूरे समाज से वह अलग हो गया है, समाज ने उसे बहिष्कार कर दिया है फिर भी उसकी श्रद्धा नहीं टूटी है । यह जानकर वे बहुत प्रसन्न हुए । समाज से बहिष्कृत मंझ ने गुरु के हृदय में स्थान बना लिया ।

कुछ समय पश्चात गुरु ने पुनः जाँच करवायी तो पता चला कि उसकी आय ऐसी है कि कमाये तो खाये और न कमाये तो भूखा रहना पड़े । गुरु ने शिष्य के हाथों मंझ को चिट्ठी भेजी । शिष्य को समझा दिया था कि “बीस रूपये चढ़ावा लेने के बाद ही यह चिट्ठी उसे देना ।”

गुरु को कहाँ रूपये चाहिए ? किंतु शिष्य की श्रद्धा को परखने एवं उसकी योग्यता को बढ़ाने के लिए गुरु कसौटी करते हैं । सच ही तो है कि कंचन को भी कसौटी पर खरा उतरने के लिए कई बार अग्नि में तपना पड़ता है ।

गुरु की चिट्ठी पाने के लिए मंझ ने पत्नी से कहाः “बीस रूपये चाहिए ।”

उस जमाने के बीस रूपये आज के पाँच-सात हजार से कम नहीं हो सकते । पत्नी बोलीः “नाथ ! मेरे सुहाग की दो चूड़ियाँ हैं और जेवर हैं । उन्हें बेच दीजिये और गुरुदेव को रूपये भेज दीजिये ।”

चूड़ियाँ और जेवर बेचकर बीस रूपये गुरु के पास भिजवा दिये । गुरुदेव ने देखा कि अब भी श्रद्धा नहीं डगमगायी ! कुछ समय के बाद दूसरी चिट्ठी भेजी, इस बार पच्चीस रूपये की माँग की गयी थी ।

अब रूपये कहाँ से लायें ? घर में फूटी कौड़ी भी न थी । मंझ को याद आया कि ‘गाँव के मुखिया ने अपने बेटे के साथ मेरी बेटी के विवाह का प्रस्ताव रखा था ।’ उस समय जातिवाद का बोलबाला था और मंझ की तुलना में मुखिया की जाति छोटी थी । मंझ ने मुखिया के आगे प्रस्ताव रखाः “मैं अपनी बेटी की सगाई आपके बेटे से कर सकता हूँ लेकिन मुझे आपकी तरफ से केवल पच्चीस रूपये चाहिए और कुछ भी नहीं ।”

मंझ ने एक छोटे खानदान के लड़के से अपनी बेटी की शादी करने में छोटी जाति का, छोटे विचार के लोगों, किसी का भी ख्याल नहीं किया । धन्य है उसकी गुरुनिष्ठा !

गुरु ने देखा कि अब भी इसकी श्रद्धा नहीं टूटी । गुरु ने संदेश भेजाः “इधर आकर आश्रम का रसोई घर सँभालो । रसोईघर में काम करो और लोगों को भोजन बनाकर खिलाओ ।

मंझ गुरु आज्ञा शिरोधार्य करके रसोईघर में काम करने लगा । कुछ समय के बाद गुरु ने अपने एक शिष्य से पूछाः “मंझ रसोई घर तो सँभालता है किंतु खाना कहाँ खाता है ?”

शिष्य ने कहाः “गुरुदेव ! वह लंगर (भण्डारा) में सबको जिमाकर फिर वहीं पर भोजन पा लेता है ।”

गुरु बोलेः “मंझ सच्ची सेवा नहीं करता । वह कार्य के बदले में भोजन प्राप्त करता है । यह निष्काम सेवा नहीं है ।”

गुरु का संकेत मंझ ने शिरोधार्य किया । दूसरे दिन से मंझ दिन में रसोई घर में सेवा करके जंगल में जाता लकड़ियाँ काटके बाजार में बेचता और अपने परिवार के आहार की व्यवस्था करता । कुछ दिन ऐसा चलता रहा । एक दिन गुरुद्वारे में लकड़ी की कमी होने से भाई मंझ शाम के वक्त लकड़ियाँ लेने जंगल में गया । लकड़ियाँ काटने के बाद तूफान के कारण मंझ लकड़ियों का गट्ठर सिर पर रखकर पेड़ के नीचे आश्रय लेने गया लेकिन हवा के तीव्र वेग से वह एक कुएँ में गिर गया ।

एकाएक गुरु अर्जुनदेव ने अपने कुछ शिष्यों को बुलाया और एक लम्बा रस्सा तथा लकड़ी का तख्ता लेकर जंगल की ओर चल दिये । शिष्यों को आश्चर्य हुआ । एक कुएँ के पास जाकर गुरु ने कहाः “इस कुएँ के तले में मंझ है । उसे आवाज दो और कहो कि रस्से से बाँधकर हम तख्त को उतारते हैं । तुम उसे पकड़ लेना, तब ऊपर खींच लेंगे ।”

बाद में कुछ बातें एक व्यक्ति के कान में कहीं और वह बात भी मंझ को बताने का संकेत किया । उस व्यक्ति ने मंझ से कहाः “भाई ! तुम्हारी दयनीय दशा हो गयी । तुम ऐसे क्रूर गुरु को क्यों मानते हो ? तुम उनका त्याग क्यों नहीं करते ? तुम उनको भूल जाओ ।”

मंझ ने भीतर से तेज आवाज में उत्तर दियाः “मेरे गुरु क्रूर हैं ऐसी बात कहने की तुम हिम्मत कैसे करते हो ! मेरे लिए उनके दिल में सिर्फ करूणा है । ऐसे बेशर्मी के शब्द कभी मत कहना !”

गुरु ने उस आदमी को स्वयं भेजा था मंझ की श्रद्धा तुड़वाने के लिए किंतु वाह रे मंझ ! मंझ ने कहाः “गुरुनिंदा सुनने के बजाय कुएँ में भूखा मरूँगा लेकिन गुरु का होकर मरूँगा, निगुरों-निंदकों का होकर नहीं मरूँगा । निगुरों का, निंदकों का होकर अमर होना भी बुरा है, गुरु का होकर मरना भी भला है ।”

भाई मंझ ने पहले सिर पर उठाकर रखी हुई सूखी लकड़ियाँ तख्त पर रख दीं और कहाः “पहले इन लकड़ियों को बाहर निकालो । ये गुरु के रसोई घर के लिए हैं । ये गीली हो जायेगी तो जलाने के काम नहीं आयेगी ।”

लकड़ियाँ बाहर निकाली गयीं । बाद में मंझ को भी बाहर निकाला गया । बाहर निकलते ही मंझ ने गुरु को देखा । उनके चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया । मंझ को उठाकर उसके कंधों को थपथपाते हुए गुरु अर्जुनदेव ने कहाः “मुझे तुम पर गर्व है ! तुमने अडिग श्रद्धा, साहस और भक्ति के साथ सब कसौटियों का सामना किया और उनमें सफल हुए हो । तुमको तीनों लोक देकर मुझे प्रसन्नता होगी ।”

भाई मंझ की आँखों से अश्रुधाराएँ बहने लगीं । उसने कहाः “मैं वरदान के रूप में आपसे आपको ही माँगता हूँ, और किसी वस्तु में मेरी प्रीति नहीं है ।”

गुरु ने मंझ को आलिंगन कर लिया और कहाः

“मंझ पिआरा गुरु का, गुरु मंझ पिआरा ।

मंझ गुरु का बोहिथा, जग लंघणहारा ।।

मंझ गुरु का प्यारा है और गुरु मंझ को प्यारे हैं । मंझ भवपार लगाने वाली गुरु की नौका है ।”

गुरु ने मंझ को सत्य का बोध करा दिया । कैसी विषम परिस्थितियाँ ! फिर भी मंझ हारा नहीं । कितने प्रयास किये गये श्रद्धा हिलाने के लिए किंतु मंझ की श्रद्धा डिगी नहीं । तभी तो उसके लिए गुरु के हृदय से भी निकल पड़ाः ‘मंझ तो मेरा प्यारा है । मंझ भवपार लगाने वाली गुरु की नौका है ।’

धन्य है मंझ की गुरुभक्ति ! धन्य है उसकी निष्ठा और धन्य है उसका गुरुप्रेम !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 5-7 अंक 198

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जालन्दरनाथ


कुरुवंश में एक अत्यंत प्रसिद्ध राजा जन्मेजय थे। उनकी सातवीं पीढ़ी के राजा का नाम बृहद्रवा था। बृहद्रवा की रानी का सुलोचना था। वे हस्तिनापुर पर राज्य करते थे। राजा बृहद्रवा ने सोमयाग करने का विचार किया। तदनुसार राजा बृहद्रवा ने एक शुभ मुहूर्त निश्चित किया। उस शुभ मुहूर्त में यज्ञ आरम्भ किया गया। चारों ओर वेदमंत्रों की ध्वनियाँ गूँजने लगीं, सभी नगरवासियों के हृदय में प्रसन्नता छा गयी। सोमयाग की पूर्णाहूति के बाद जब ब्राह्मण यज्ञकुंड में से भस्म निकालने लगे, तब उनके हाथ का स्पर्श होते ही भस्म के भीतर से बालक के रोने की आवाज आयी। ब्राह्मणों ने बालक को बाहर निकाला। बालक का स्वरूप अत्यंत दिव्य और परम तेजस्वी था उस बालक को देखकर सभी लोग आश्चर्य करने लगे कि अग्निकुंड की प्रज्वलित अग्नि में यह बालक कैसे जीवित रहा होगा ? एक ब्राह्मण ने राजा से कहाः “महाराज ! यज्ञकुंड से यह तेजःपुंज बालक प्रसादरूप में मिला है।” यज्ञकुंड के भीतर से निकले हुए अयोनिज जीवित बालक को ब्राह्मणों ने राजा बृहद्रवा को सौंप दिया। रानी सुलोचना ने राजा से पूछाः “यह बालक किसका है ?” राजा ने बालक को रानी की गोद में देते हुए कहाः “भगवान अग्निदेव ने हमें सोमयाग की प्रसादी के रूप में यह बालक दिया है। मीनकेत की तरह यह भी अपना पुत्र है।”

रानी सुलोचना बालक को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई और उसने बालक को अपने हृदय से लगा लिया। पुत्रस्नेह के कारण उसी समय रानी के स्तनों से दूध की धार बहने लगी। रानी ने बालक को स्तनपान कराया।

12 दिन बाद उत्सव मनाकर बालक का नामकरण किया गया। यज्ञकुंड में अग्नि की ज्वालाओं में बालक जीवित रहा, अग्निदेव की प्रसादी के रूप में उसका जन्म हुआ, इसलिए उसका नाम जालन्दर रखा गया। उस समय राजा ने प्रसन्नचित्त से ब्राह्मणों और याचकों को खूब दान दिया।

बालक जालन्दर चंद्रमा की कलाओं की भाँति बढ़ने लगा। राजा-रानी दोनों ही उस परम तेजस्वी बालक को देखकर अत्यंत प्रसन्न होते थे और अपने भाग्य को सराहा करते थे। मीनकेत भी अपने छोटे भाई जालन्दर से बहुत प्रेम करता था। दोनों भाई प्रेमपूर्वक साथ-साथ विद्याभ्यास करते थे।

जालन्दर की वैराग्य वृत्ति दिन-प्रतिदिन अधिक बढ़ने लगी। राजसी सुख-वैभव उसे पसंद नहीं था।

राजा के मन में युवक जालन्दर का विवाह करने का विचार आया। राजा ने योग्य कन्या की तलाश करने के लिए अपने प्रधानमंत्री और राजगुरु को आज्ञा दी। आज्ञानुसार वे दोनों राजधानी हस्तिनापुर से बाहर गये।

जालन्दर धर्म-चर्चा करने के लिए प्रतिदिन राजगुरु के घर जाया करते थे, परंतु जब राजगुरु कन्या की तालाश में प्रधानमंत्री के साथ हस्तिनापुर से बाहर गये और कई दिनों तक नहीं लौटे, तब एक दिन जालन्दर ने अपनी माता रानी सुलोचना से पूछाः “मातुश्री ! राजगुरु और प्रधानमंत्री कहाँ गये हैं, आजकल वे दिखाई नहीं देते? ”

तब रानी सुलोचना ने कहाः “हे पुत्र ! तुम्हारे लिए राजा की आज्ञा से कन्या ढूँढने गये हैं ताकि तुम्हारा विवाह कराया जा सके।

जालन्दर ने पूछाः “माता ! कन्या किसे कहते हैं ?”

रानी ने कहाः “जिस लड़की का विवाह न हुआ हो, उसे कन्या कहा जाता है।”

जालन्दर ने फिर पूछाः “और विवाह किसे कहते हैं ?”

रानी ने कहाः “वर-वधू के धर्मानुसार एक सूत्र में बँधने की क्रिया को विवाह कहते हैं।”

जालन्दर ने पूछाः “वधू कैसी होती है ?”

रानी ने कहाः “वधू मेरे जैसी होती है। जैसी मैं हूँ, वैसी तेरे लिए भी दुल्हन आयेगी।” जालन्दर इन बातों से अनजान हैं रानी को यह जानकर आश्चर्य हुआ। माँ की बातें सोचते हुए जालन्दर वहाँ से उठकर तुरन्त ‘गुरु उद्यान’ में पहुँचे, वहाँ अपने मित्रों के साथ खेलते-खेलते जालन्दर ने उन्हें बताया कि मेरे माता-पिता मेरे लिए दुलहन ला रहे हैं। दुलहन किस लिए लाते हैं, मुझे पता नहीं है। अगर आप लोगों को पता हो तो मुझे बताइये।

साथियों को जालन्दर की बात सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। उन्हें यह अनुमान भी नहीं था कि इतना बड़ा हो जाने पर भी जालन्दर को इन बातों का जरा भी ज्ञान नहीं है।

साथियों ने जालन्दर से कहाः “दुलहन आयेगी, विवाह होगा, शहनाइयाँ बजेंगी और उत्सव मनाया जायेगा।”

जालन्दर ने पूछाः “परंतु उससे मुझे क्या लाभ होगा ?”

साथियों ने कहाः “एक सुन्दर दुलहन मिल जायेगी।”

जालन्दर ने कहाः “दुलहन का मैं क्या करूँगा ?”

साथी बोलेः “उससे संतानें होंगी। आप उनके पिता बनेंगे। इस प्रकार वंश की वृद्धि होगी।”

उसी समय जालन्दर का विवेक जागृत हुआ और सोचने लगे कि ‘यह जगत कितना अधम है ? जिस विवाह के कारण इतने झंझटों में फँसना पड़ेगा, वह कार्य मैं कभी नहीं करूँगा।’

जालन्दर इस प्रकार विचार करते हुए अपने साथियों में से उठे और दूर बैठकर सोचने लगे। माता सुलोचना के शब्दों का स्मरण होने लगा। सोचते-सोचते जालन्दर की वैराग्य-वृत्ति और भी जोर पकड़ने लगी। उन्होंने गृहत्याग का निश्चय किया और वहाँ से उठकर सीधे वन की ओर चल पड़े।

कुछ नगरवासियों ने उन्हें नगर के बाहर जाते हुए देखा, परंतु राजकुमार है इस भय से वे कुछ बोल नहीं पाये। लेकिन जिसने भी राजकुमार को जाते हुए देखा वे सभी दौड़कर राजा के पास गये और बताया कि हमने राजकुमार जालन्दर को नगर के बाहर जाते हुए देखा है। यह सुनकर राजा चौंक गये। उन्होंने जालन्दर को ढूँढने के लिए अपने कई सेवक भेजे। राजा-रानी को बहुत चिन्ता होने लगी। दूर-दूर तक गये हुए सेवकों ने लौटकर राजा को यही बताया कि “राजकुमार नहीं मिले।”

जैसे, अमावस्या के दिन चंद्रदर्शन न होने से सब जगह अँधेरा छा जाता है, वैसे ही जालन्दर के न मिलने से राजा, रानी और प्रजाजनों के हृदय में निराशारूपी अँधेरा छा गया। राजा-रानी सोचे लगे कि अग्निदेव का प्रसादरूपी चैतन्य-रत्न हमारे हाथ से चला गया। दोनों विलाप करने लगे, राजा का एक सरदार बुद्धिशाली था। उसने राजा को एक समझाने का प्रयास करते हुए कहाः “राजन् ! जालन्दर तो अयोनिज अवतार हैं, वे ईश्वर के अंशावतार हैं। इसलिए काल का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। आप चिंता न करें। जब तक वे नहीं मिलते, तब तक हम उन्हें ढूँढने का प्रयास जारी रखेंगे, कभी-न-कभी तो मिल ही जायेंगे। आप धीरज रखिये….।’

आखिर दोनों को धैर्य धारण करना पड़ा। उधर जालन्दर उत्तर दिशा की ओर चलते-चलते गहन वन में जा पहुँचे। उस समय रात हो जाने के कारण वे जंगल में ही एक वृक्ष के नीचे सो गये। उसी रात को जंगल में दावानल फैल गया। वह अग्नि वन के वृक्षों को जलाती हुई उसी जगह पर आ पहुँची, जहाँ जालन्दर सो रहे थे।

जालन्दर को वहाँ सोते देखकर अग्निदेव को राजा बृहद्रवा के सोमयाग का स्मरण हुआ कि ‘यह जालन्दर तो मेरा ही पुत्र है। मैंने ही सोमयाग के समय यज्ञकुंड में गर्भ डाला था। उसी में से जालन्दर का जन्म हुआ था। यह वही मेरा पुत्र है, परंतु जालन्दर का इस अरण्य में आने का क्या कारण होगा ?’

इस प्रकार सोचते हुए अग्निदेव शांत हुए और अपने अग्निरूप को समेटकर देवरूप धारण करके जालन्दर के पास आकर उन्हें जगाया। जालन्दर ने उठते ही आश्चर्य चकित होकर पूछा कि ‘आप कौन हैं ?’

अग्निदेव ने कहाः “मैं अग्निदेवता हूँ। मैं ही तुम्हारा माता-पिता हूँ।”

जालन्दर ने कहाः “मैं तो राजा बृहद्रवा का पुत्र हूँ। मेरी माता तो रानी सुलोचना है। आप मेरे माता-पिता किस प्रकार हुए ?

तब अग्निदेव ने जालन्दर क उनकी जन्म कथा का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया।

अग्निदेव ने पूछाः “जालन्दर इस घोर अरण्य में तुम्हारा अकेले आने का क्या कारण है ? तुम क्या चाहते हो ?”

जालन्दर ने कहाः “मैं सांसारिक बंधनों में बंधना नहीं चाहता। मैं अपने जीवन को सार्थक करना चाहता हूँ, मैं चिरंजीवी होना चाहता हूँ। आप मेरे माता-पिता हैं, अतः आप ही मेरी सहायता करें। अगर यह मानव-देह प्राप्त होने पर भी जीवन सार्थक न हुआ तो मेरा जन्म लेना भी व्यर्थ हो जायेगा। कृप्या मेरे इस जीवन को सार्थक कर दीजिये।”

अपने पुत्र जालन्दर की बातें सुनकर पिता अग्निदेव प्रसन्न हुए। वे जालन्दर को गिरनार पर्वत पर भगवान दत्तात्रेय जी के पास ले गये। पिता-पुत्र दोनों ने साष्टाँग दण्डवत प्रणाम किया। अग्निदेव को देखकर दत्तात्रेय जी हर्षित हुए और उन्हें आलिंगन किया।

दत्तात्रेय जी ने दोनों को आशीर्वाद देकर आसन पर बिठाया और अग्निदेव से पूछाः “यह बालक कौन है ?”

अग्निदेव ने जालन्दर के जन्म का सम्पूर्ण वृत्तांत सुनाया और नम्रतापूर्वक प्रार्थना की ‘भगवन् ! आप मेरे इस पुत्र को नाथ पंथ की दीक्षा देकर इसका जीवन सार्थक कीजिये।’

दत्तात्रेय जी ने अग्निदेवता की प्रार्थना स्वीकार की। अग्निदेव दत्तात्रेय जी के पास जालन्दर को छोड़कर वहाँ से चले गये। दत्तात्रेय जी ने जालन्दर को नाथ पंथ की दीक्षा देकर उसका नाम जालन्दरनाथ रखा। शास्त्राध्ययन के साथ-साथ अन्य सभी विद्याओं में भी जालन्दर को पारंगत किया। उसके बाद गुरु-शिष्य दोनों ने साथ रहकर 12 वर्ष तक तीर्थाटन किया। तीर्थयात्रा करते-करते दत्तात्रेय जी जालन्दरनाथ को बदरिकाश्रम ले गये। वहाँ उन्हें 12 वर्ष तक तपस्या करने की आज्ञा दी। तपस्या पूरी होने के बाद वे जालन्दरनाथ को शिवजी के पास ले गये। शिवजी सहित अन्य देवताओं ने श्री जालन्दरनाथ को आशीर्वाद दिये।

शिवजी ने अग्निदेवता को बुलाकर तीन दिन तक पिता-पुत्र को अपने पास रखा और जालन्दरनाथ द्वारा कनिकानाथ का प्रागट्य करवाया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 19-21, अंक 198

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