ब्रह्मवेत्ता महापुरुष अपनी ब्रह्ममस्ती में मस्त रहते हुए भी अहैतुकी कृपा करने के स्वभाव के कारण संसार के दुःख, चिंता आदि तापों से तप्त मानव को ब्रह्मरस पिलाने के लिए समाज में भ्रमण करते हुए अनेक अठखेलियाँ करते रहते हैं । एक बार भगवत्पाद साँईँ श्री लीलाशाह जी महाराज आगरा में सत्संग कर रहे थे । बहनों-माताओं को व्यर्थ चिंता, तनाव व निंदा-स्तुति रो बचकर निश्चिंत, स्वस्थ व प्रसन्न रहने की युक्ति बताते हुए स्वामी जी ने कहाः ″स्त्रियाँ घर का श्रृंगार होती हैं । वे चाहें तो घर को स्वर्ग अथवा नरक बना सकती हैं । यदि घर में शांति, प्रेम, आनंद होगा तो घर स्वर्ग की भाँति बन जायेगा । बेचारा मर्द सारा दिन काम करके थक-हारकर जब घर में पहुँचे और उस समय धर्मपत्नी उसके सामने अपने दुखड़े रोने लगे तो उसे जिंदगी से भला कैसा आनंद आयेगा ? फुरसत के समय में यदि दो चार औरतें आपस में मिलती हैं तो किसी-न-किसी की निंदा करती रहती हैं तथा एक दूसरे को घर की बातें बताकर अपना रोना रोती हैं । अपना अमूल्य जीवन ऐसे ही व्यर्थ कर देती हैं ।
किसी के द्वारा कुछ कहने से क्या होता है ? आप पूरे शहर के लोगों से कहो कि मुझे गालियाँ दें परंतु मैं गालियाँ लूँगा ही नहीं अर्थात् उस ओर ध्यान ही नहीं दूँगा तो मेरा क्या बिगड़ेगा ? हे माताओ ! कुछ ध्यान दो, कुछ सोचो । यदि आपको कोई कुछ देवे और आप लो ही नहीं तो वह चीज वापस उसके पास ही रहेगी । आप एक दूसरे की बातें इधर-उधर करके अपने दिल को बेचैन मत करो ।″
फिर स्वामी जी ने सत्संगियों के सामने एक कपड़ा जो वे हमेशा साथ रखते थे, अपने सामने बिछाया तथा माताओं से कहने लगेः ″हे माताओ ! आपके पास जो चिंताएँ, दुःख आदि हों वे मुझे अर्पण कर दो, इस कपड़े पर डाल दो ।″ फिर वे अपने हाथ लम्बे करके मानो माताओं से उनकी चिंताएँ आदि लेकर कपड़े पर डालने लगे । कहने लगेः ″सब सुनो, देखो, कहीं किसी के पास कोई चिंता रह न जाये, सब मुझे दान में दे दो ।″ फिर सत्संगियों को हँसाते-हँसाते, वह कपड़ा उठाते हुए उसे गाँठ बाँधने लगे, बोलेः ″सब चिंताओं की गठरी भरकर गाँधीधाम जा के समुद्र में फेंक दूँगा । आज के बाद अब कोई भी माता चिंता नहीं करे ।
चिंता से चेहरो घटे, घटे बुद्धि और ज्ञान ।
मानव चिंता मत करो, चिंता चिता समान ।।
कलियुग में दान की बड़ी भारी महिमा है । शास्त्रों में कहा गया हैः दानं केवलं कलियुगे ।
8 प्रकार के दानों में सत्संग-दान सर्वोपरि है । हमारे प्यारे दादागुरु भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज ने सत्संग दान तो किया ही, साथ ही विनोद-विनोद में सत्संगियों के दुःख, चिंता आदि दूर करने के ले दान के रूप में उन्हें माँग लिया । यही है करुणावान, दया की खान ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की महानता, सरलता और विलक्षणता ! उनकी हर चेष्टा जीवमात्र के कल्याण के लिए ही होती है । जो दोष, दुर्गुण, दुःख, चिंता छोड़ने में असम्भव लगते हैं वे ऐसे महापुरुषों के दर्शन-सत्संग, उनकी प्रेमभरी लीलाओं के स्मरण चिंतन तथा उनकी बतायी सरल-से-सरल युक्तियों को जीवन में उतारने से सहज में ही छूट जाते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 21 अंक 344 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ