Tag Archives: Seva

दरिद्रता कैसे मिटे और ‘पृथ्वी के देव’ कौन ?


एक निर्धन व्यक्ति ने महात्मा बुद्ध से पूछाः “मैं इतना गरीब क्यों हूँ ?”

बुद्ध ने कहाः “तुम गरीब हो क्योंकि तुमने देना नहीं सीखा।”

“महात्मन ! लेकिन मेरे पास तो देने के लिए कुछ भी नहीं है।”

“तुम्हारे पास देने को बहुत कुछ है। तुम्हारा चेहरा एक निर्दोष मुस्कान दे सकता है, तुम्हारा मुख परमात्मा और संतों का गुणगान कर सकता है, किसी को स्नेह-सांत्वनापूर्ण मधुर वचन बोल सकता है, तुम्हारे हाथ किसी निर्बल व्यक्ति की सहायता कर सकते हैं और उससे भी ऊँची बात तो यह है कि जो सत्य-ज्ञान तुमको मिल रहा है, उसे दूसरों तक पहुँचाने की सेवा तुम कर सकते हो। जब तुम इतना सब दूसरों को दे सकते हो तो तुम गरीब कैसे ? वास्तव में मन की दरिद्रता ही दरिद्रता है और वह बाहरी साधनों से नहीं मिटती, सत्य का साक्षात्कार कराने वाले सम्यक् ज्ञान से ही मिटती है।”

पूज्य बापू जी के सत्संगामृत में भी आता है कि “उनका  जीवन सचमुच में धन्य है जो लोगों तक मोक्षदायक सत्संग के विचार पहुँचाने की दैवी सेवा में जुड़ जाते हैं। वे अपना तो क्या, अपनी 21 पीढ़ियों का मंगल करते हैं। हीन विचार जब मानवता का विनाश कर देते हैं तो उत्तम विचार मानवता को उन्नत भी तो कर देते हैं ! अन्न दान, भूमि दान, कन्यादान, विद्या दान, गोदान, गोरस दान, स्वर्ण-दान – ये सात प्रकार के दान अपनी जगह पर ठीक हैं किंतु आठवें प्रकार का दान है ‘ब्रह्मज्ञान का सत्संग दान’, जिसे सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। ऐसे कलियुग में जो लोगों तक ब्रह्मज्ञान का सत्संग पहुँचाने में साझीदार होने की सेवा खोज लेते हैं, वे मानव-जाति के हितैषी, रक्षक बन जाते हैं और उन्हें ‘पृथ्वी के देव’ कहा जाता है।

ऋषि प्रसाद, ऋषि दर्शन एवं लोक कल्याण सेतु घर-घर पहुँचाकर समाज से सद्ज्ञान-दरिद्रता को उखाड़ फेंक के सबकी लौकिक, आध्यात्मिक एवं सर्वांगीण उन्नति करने वाले परोपकारी पुण्यात्मा धनभागी हैं ! इस सेवा से उनके जीवन में अनेक दिव्य अनुभव होते हैं। आप भी इन सेवाओं से जुड़कर लाभान्वित हो सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 16 अंक 309

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

हे मनुष्यो ! एकजुट हो जाइये….


समानी व आकूतिः समाना हृदयानि चः।

समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।

‘हे मनुष्यो ! तुम लोगों के संकल्प और निश्चय एक समान हों, तुम सबके हृदय तक एक जैसे हो, तुम्हारे मन एक समान हों ताकि तुम्हें सब शुभ, मंगलदायक, सुहावना हो (एवं तुम संगठित हो के अपने सभी कार्य पूर्ण कर सको)।’

(ऋग्वेदः मंडल 10, सूक्त 191, मंत्र 4)

1.विचार संकल्पः जगत संकल्पमय है। जब अनेक व्यक्तियों के विचारों में एकजुटता होती है तब उससे सामूहिक संकल्प-शक्ति पैदा होती है, जिसके प्रभाव से दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव होते देखे गये हैं। जब-जब आत्मवेत्ता सत्पुरुष धरती पर अवतरित होते हैं, तब-तब तत्कालीन जितने अधिक लोग उनके सिद्धान्त को समझ पाते हैं, उनके पदचिन्हों का अनुसरण कर पाते हैं उतना ज्यादा व्यक्ति, समाज, देश और पूरे विश्व का कल्याण होता है।

2.हृदय-साम्यः हृदय का एक अर्थ केन्द्र भी होता है। हृदय साम्य का अर्थ है कि हमारा जो केन्दीय सिद्धान्त है वह उस एक ईश्वरीय विधान के अनुकूल हो। ईश्वरीय विधान यह है कि सबकी भलाई में अपनी भलाई, सबके मंगल में अपना मंगल है क्योंकि सबकी गहराई में एक ही चैतन्य आत्मा विद्यमान है। अकः किसी का अहित न चाहना भगवान की सबसे बड़ी सेवा है। सबका हित चाहने से आपका स्वयं का हृदय मंगलमय हो जायेगा। ईश्वर में आप जितना खोओगे, उनके प्रति आप जितना समर्पित होंगे, ईश्वर आपके द्वारा उतने ही बढ़िया कार्य करवायेंगे। इससे ईश्वर भी मिलेंगे और समाज की सेवा भी हो जायेगी।

3.मनः साम्यः यदि मन-भेद है, मनःसाम्य नहीं है तो बाहर की सुख-सुविधाएँ होते हुए भी लोग भीतर से दुःखी, चिंतित, अशांत रहते हैं। सभी के मन भिन्न-भिन्न हैं, ऐसे में क्या मनःसाम्य सम्भव है ? हाँ, सम्भव है। सभी के मन एक चैतन्यस्वरूप आत्मा से स्फुरित हुए हैं। अतः यदि आत्मदृष्टि एवं आत्मानुकूल व्यवहार का अवलम्बन लिया जाय तो मनःसाम्य के लिए अलग किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं रहेगी। इससे जीवन में परमत सहिष्णुता आयेगी अर्थात् अपने मत का आग्रह न रहकर दूसरे का जो भी कोई शास्त्रसम्मत मत सामने आयेगा, उसके अनुमोदन एवं पूर्ति में रस आयेगा। इससे अपने व्यक्तिगत अधिकारों की चिंता छूटने लगेगी और दूसरों के शास्त्रसम्मत अधिकारों की रक्षा होने लगेगी। दूसरों द्वारा अपना सही विचार भी अस्वीकृत होने पर व्यक्ति के हृदय में विक्षेप व खेद नहीं होगा बल्कि वह ईश्वर को, सदगुरु को प्रार्थना करेगा एवं शरणागत होकर हल खोजेगा।

तो उपरोक्त वैदिक त्रिसूत्री में अपना एवं सबका मंगल समाया हुआ है। अपना एवं समाज का जीवन सुशोभित करने के लिए मानो यह एक ईश्वरीय उपहार ही है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 2 अंक 308

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

गुरुभक्त भाई मुंज


https://hariomaudio.standard.us-east-1.oortstorage.com/hariomaudio_satsang/Title/2015/Jan/Gurubhakt-Munj.mp3

 

नारायण, नारायण…

जिसके जीवन में सतगुरु का ज्ञान नहीं है, ज्ञान के मुताबिक आचरण नहीं है, उसका जीवन चाहे बाहर से कितना भी सुखी और स्वतंत्र दिखे, लेकिन वो मक्खी और कौवे-कुत्ते भी सुखी, स्वतंत्र दिखते हैं लेकिन दिखने भर को हैं, दुर्गति ही है उनकी..  ऐसे ही हमारा मन तितली की नाईं, मुर्गे, मच्छर की नाईं मनमुख होकर जीवन बर्बाद हो गया, इसकी अपेक्षा हरगोविंद का शिष्य मुंज, बड़ा भारी जमींदार था ।

 

देखा कि आयुष बीत रही है । अर्जुन देव का, आयुष बीत रही है । कुलदेवी की उपासना तो बहुत की ।  बापदादों ने भी कुलदेवी को माना, पूजा किया लेकिन ये मानी हुई पूजा, ये तो बहुत हो गया, जाना हुआ रब को पहचाना जरूरी है ।

 

गुरु अर्जुन देव के पास आया भाई मुंज । गुरु महाराज मेरे को अपना शिष्य बनाओ ।

बोले – क्या करते हो ?

बोले मैं बड़ा जमींदार हूँ, मेरे पास ऐसा-ऐसा भी है और कुल खानदान का मंदिर बनाया हुआ है ।  हमारे कुलदेवी का । और भी बहुत लोग दर्शन करने भी आते हैं, यहाँ ।

तो बोले – अभी तो जा फिर मंदिर के देवता को रिझाता फिरो ।

बोले – नहीं देव आप का शिष्य बनना चाहता हूँ ।

तो बोले – जाओ वो मंदिर-वन्दिर हटवा दो पहले ।

कुल परम्परा से मानते हैं बोले देवता के मंदिर को हटवा दो, तुड़वा दो । मंदिर तुड़वा के आ गया ।

कैसा ?

बोले – समाज ने बहुत विरोध किया तो मेरे को गिरा हुआ आदमी मानते हैं । लेकिन मैं आपका हूँ, आपके चरणों में ही गिरा हूँ तो ठीक है ।

गुरु ने कहा – ठीक ।

अब क्या हुआ, समाज विरुद्ध हो गया । तो जो कुछ लेना-देना करने वाले थे देने वालों ने पैसा देने से इंकार कर दिया, लेने वाले एक साथ आकर जम गये । पूरा समाज एंटी हो गया ना । जिसको पैसे दिए हुए थे, व्यवहार में अपना, उन्होंने बोला हम नहीं देंगें । मंदिर भी तुड़वा दिया, हम नहीं देंगें, जो करना है, करो । और लेने वालों ने बोला अभी रखो । तो सारी जमीन गिरवी रख दी । लेनदारों को पैसे दे दिए । अब वो जमाने में जमीन गिरवी रख दे, तो जिसको जमीन गिरवी रखे वो तो खेड़े । पैसे दे तब कब्जा मिले । और ब्याज चालू १२ टका । रूपये पर दो आना ब्याज, १२% ब्याज । और जो जमींदार की जमीन तो पूरी हो गयी साल-दो साल में तो । वो उस गाँव से रवाना हुआ । किसी दूसरे गाँव में परिवार को बसाया और घास काटते, मजूरी करके घास लेकर बाजार में बेचने जाते ।

गुरु ने देखा कि अभी भी श्रद्धा टिकी है, मेरा शिष्य बनने को अभी भी मन तो करता है, चलो, ठीक है, लेकिन देखें कितना पक्का है ।

गुरु ने एक चिट्ठी भेजी और सेवक को बोला कि जब बीस रुपय दे तब देना चिट्ठी ।

वो जमाने के बीस रूपये.. उस जमाने में बीस रूपये में आधा पोना तोला सोना मिल जावे । तो बोले बीस रुपया लेके फिर चिट्ठी देना ।

अब बीस रुपया कहाँ से लाये ? चूड़ियाँ थी, दो चूड़ियाँ और जो कुछ था मंगलसुत्र वो बेच के बीस रूपये गुरूजी को दिए और चिट्ठी लिया ।

गुरूजी के आदमी से बीस रूपये देकर चिट्ठी लिया । गुरूजी ने जो सत्संग के दो शब्द लिखा के चिट्ठी भेजी, गुरूजी की चिट्ठी है, दक्षिणा में बीस रूपये दोगे तो चिट्ठी मिलेगी नहीं तो मैं वापस ले जाता हूँ । तो पत्नी की दो चूड़ी और मंगलसुत्र बेचकर बीस रूपये दे दिए, चिट्ठी ले ली ।

अर्जुन देव को बीस रूपये पहुँच गये, उनको बीस रूपये क्या करने थे ? देखें कितना खजाना ये हजम कर सकता है , कितना शिष्य पक्का है । जमीन चली गयी, घसियारा बन गया, मंदिर टूट गया, अपमान हो गया, समाज से अलग-थलग हो गया । फिर भी मेरे को गुरु मानता है और पत्नी के गहने बेचकर २० रुपया दिया और चिट्ठी लिया । ठीक है अभी और देखेंगें ।

कुछ महीने बीते तो एक चिट्ठी और लिख दी और सेवक को बोला अभी पच्‍चीस रूपये मांगो तब देना चिट्ठी नहीं तो देना नहीं । अब २५ पैसे भी तो थे नहीं । गुरु की आई हुई चिट्ठी, संदेशा वापस कैसे जाने दूँ ! बोले बैठ । वो गाँव का एक व्यक्ति था, बहुत छोटी जाति का था । बोले मेरी जरूरत है, पहले तो तुम, जो भी बात हुई, कुल-मिला के अपनी कन्या, २५ रुपया हमको मदद करो, मैं तुम्हारे बेटे को कन्यादान करता हूँ ।

हालाँकि मुंज की जाति बहुत ऊँची थी और उसकी छोटी थी । २५ रूपये लिए, कन्यादान की मंगनी कर दी । वो २५ रूपये दे दिए । गुरु की चिट्ठी पढ़ने के लिए ।

उन्होंने देखा ये बहुत मजबूत है । फिर संदेशा भेजा के अब उधर क्या करते ? आश्रम में आओ और रसोड़े की सेवा करो । रसोई घर संभालो । भोजन बनाओ, सिरा मंगाओ ये सब करो । आश्रम के रसोइये का विभाग संभालो । विभाग संभालने लगे ।

कुछ दिन बीते फिर पूछा तुम लंगर तो अच्छा बनाते हो लेकिन, भोजन तो अच्छा बनाते हो तुम लोग, तुम कहाँ खाते हो ?

बोले सबको खिलाते हैं, लंगर में, बाद में हम लोग खा लेते हैं ।

तो बोले ये तो तुम नौकरी कर रहे हो । ये तो निष्काम सेवा नहीं हुई । खाना खाना और लंगर करना ये तो सारी दुनिया खाती है और काम करती है । तो गुरु की सेवा क्या किया ।

बोले गुरूजी ठीक है, लंगर की सेवा करेंगें, रसोई बनायेंगें सबको खिलायेंगें । हम यहाँ नहीं खायेंगें, हमारा हक नहीं बनता ।

तो क्या करे, सबको खिला के जाए और फिर जंगल में से लकड़ियाँ करके आये । वो बेचे फटाफट, सीध वीधा लेके, उसका टिकड़-विकड बना के खाए फिर शाम को लंगर में हाजिर । तो ये शरीर कमजोर हो गया । लंगर की लकड़ियाँ, खुट गयी, लंगर माना रसोड़ा । लकड़ियाँ खुट गयी, अब लकडहार खुद भी था । चलो तो ले आऊ । वो लकड़ी का भारा ले आ रहा था । आँधी-तूफान लगा और कमजोरी थी । पेड़ के नीचे आराम करना चाहता था, रुकना चाहता था, लेकिन पेड़ के पास में एक कुवाँ था । धडाक-धूम गठ्ठर सहित कुँवे में ।

गुरूजी ने पूछा कहाँ गया, कहाँ गया तो अभी आया नहीं, जाँच किया । रस्सा-व्स्सा ले गये । कुछ अजनबी आदमियों को भेजा के तू कैसे गुरु के चक्कर में है ? उसकी श्रद्धा तोड़ने वाले कुछ नये आदमियों को भेजा । कि  हम रस्सा भेजते हैं लेकिन ऐसे गुरु का त्याग कर दो और ठीक से जीवन अपना खुशहाली का जियो । क्या गुरु मंत्र और ईश्वर प्राप्ति, प्रभु ज्ञान प्राप्ति के चक्कर में अपना सर्व खो दिया । अभी तक कुछ मिला तो नहीं । मिली भूख, मिली बदनामी, अपना कुलदेवी का मंदिर तोड़ दिया । हम तुमको सब मदद करेंगें । और नीच जाति में अपनी कन्या दे दी । अभी भी तुम पर गुरु खुश नहीं हुए । ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई तो क्या हो जायेगा ? जो भी कुछ कहना था, टेड़ा-मेडा कहा । हम तुमको बाहर निकालते हैं ये लो रस्से के साथ तख्ता है उसको पकड़ना, बैठना उसपर  हम खींचेंगें ।

बोले नहीं मैं तुम्हारे तख्ते पे नहीं बैठूँगा, नहीं खींचो । गुरु के निंदक हो । निंदकों के साथ मुझे अमर होना कबूल नहीं है । गुरु का शिष्य होकर कुंवे में मर जाना कबूल है । गुरु का होकर मरूँगा ना, निंदकों का होकर मुझे अमर नहीं होना है । गुरु का होकर मुझे मरना है ।

तो बोले अच्छा अब छोड़ो भाई, अब तू नहीं मानता है तो आ, जा निकल जा । बोले मैं पहले नहीं निकलूँगा, पहले ये लडकियाँ खींचो और गुरु के द्वार पहुँचाना  । यहाँ मैं पहले आ जाऊ तो लकड़ी भीग जाएगी । मैंने इनको संभाल के रखा है ऊपर । पानी घुटने भर का है । लकड़ियाँ पहले भेजी, गुरु का लंगर का काम हो ।

फिर बाद में बाहर आये तो देखा के गुरूजी छुपे खड़े थे ।

गुरु के चरणों में जा गिरा – अर्जुन देव के । गुरु ने पीठ थपथपाई के शाबाश है, बहादुर है, बोई । मुंज प्यारा गुरु का, गुरु मुंज प्यारा । तू मुंज प्यारा है गुरु का और गुरु तेरे प्यारे, तू गुरु का प्यारा । मुंज गुरु का बोईथा, बोईथा माना जहाज, जग लाँघनहारा ।

अब तो मुंज के संपर्क में दूसरे लोग भी पार हो जायेंगें । चेला क्या बनाये अब सीधा गुरु बना दिया । बोलो कॉपोरेट क्या बनाये, पूरा एम्.पी. बना दिया, एम्.एल.ऐ. बना दिया । तो खुश होते हैं । लेकिन एम्.एल.ऐ., एम्.पी. तो बेचारे हार जाते हैं । यहाँ तो हार का मुँह ही नहीं देखना पड़े एक बार ब्रह्मज्ञान हो गया तो हो गया बस । कई जमींदार हो गये, कई कंगाल हो गये, मर गये, बीमार हो गये लेकिन मुंज तो अमर हो गया । नहीं हुआ ? गुरु की आज्ञा मानना ही गुरु की सेवा है । गुरु का खजाना उसी को मिलता है । मुंज जैसो को, नरेंद्र जैसो को, र्हिदास जैसो को, कबीर जैसों को गुरु का खजाना मिलता है । मनमुख लोगों को गुरु के खजाने की महिमा पता नहीं होती ना ।