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ऐसी हो गुरु में निष्ठा


पुराणों में एक कथा आती है कि-

भगवान शिवजी ने पार्वती से कहा हैः

आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः।

ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः।।

‘हे देवी ! कल्पपर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ – ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं।’

शिष्य को गुरु की ऐसी सेवा करनी चाहिए कि गुरु प्रसन्न हो जाएँ, उनका संतोष प्राप्त हो जाये। कोई भी कार्य ऐसा न हो जिससे गुरु नाराज हों। हमें हमारा सेवाकार्य इतने सुंदर ढंग से करना चाहिए कि कहीं कोई कमी न रह जाये और गुरुदेव की प्रसन्नता भी स्वाभाविक ही प्राप्त कर लें। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि गुरु अपने शिष्यों की गुरुभक्ति की, निष्ठा की परीक्षा भी लिया करते है, जैसे संदीपक और उसके गुरुभाइयों की परीक्षा उनके गुरु ने ली थी।

प्राचीन काल में गोदावरी नदी के किनारे वेदधर्म मुनि के आश्रम में उनके शिष्य वेद-शास्त्रादि का अध्ययन करते थे। एक दिन गुरु ने अपने शिष्यों की गुरुभक्ति की परीक्षा लेने का विचार किया। सत्शिष्यों में गुरु के प्रति इतनी अटूट श्रद्धा होती है कि उस श्रद्धा को नापने के लिए गुरुओं को कभी-कभी योगबल का भी उपयोग करना पड़ता है।

वेदधर्म मुनि ने अपने शिष्यों को एकत्र करके कहाः ” हे शिष्यों ! पूर्वजन्म में मैंने कुछ पापकर्म किये हैं। उनमें से कुछ तो जप-तप, अनुष्ठान करके मैंने काट लिये, अभी थोड़ा प्रारब्ध बाकी है। उसका फल इसी जन्म में भोग लेना जरूरी है। उस कर्म का फल भोगने के लिए मुझे भयानक बीमारी आ घेरेगी, इसलिए मैं काशी जाकर रहूँगा। वहाँ मुझे कोढ़ निकलेगा, अँधा हो जाऊँगा। उस समय मेरे साथ काशी आकर मेरी सेवा कौन करेगा ? है कोई हरि का लाल, जो मेरे साथ रहने के लिए तैयार हो ?”

वेदधर्म मुनि ने परीक्षा ली। शिष्य पहले तो कहा करते थेः “गुरुदेव ! आपके चरणों में हमारा जीवन न्योछावर हो जाये मेरे प्रभु !” अब सब चुप हो गये। गुरु का जयघोष होता है, माल-मिठाइयाँ आती हैं, फूल-फल के ढेर लगते हैं तब बहुत शिष्य होते हैं लेकिन आपत्तिकाल में उनमें से कितने टिकते हैं !

वेदधर्म मुनि के शिष्यों में संदीपक नाम का शिष्य खूब गुरु-सेवापरायण, गुरुभक्त एवं कुशाग्र बुद्धिवाला था। उसने कहाः “गुरुदेव ! यह दास आपकी सेवा में रहेगा।”

गुरुदेवः “इक्कीस वर्ष तक सेवा के लिए रहना होगा।”

संदीपकः “इक्कीस वर्ष तो क्या मेरा पूरा जीवन ही अर्पित है। गुरुसेवा में ही इस जीवन की सार्थकता है।”

वेदधर्म मुनि एवं संदीपक काशी नगर में मणिकर्णिका घाट से कुछ दूर रहने लगे। संदीपक सेवा में लग गया। प्रातः काल में गुरु की आवश्यकता के अनुसार दातुन-पानी, स्नान-पूजन, वस्त्र-परिधान इत्यादि की तैयारी पहले से ही करके रखता। समय होते ही भिक्षा माँगकर लाता और गुरुदेव को भोजन कराता। कुछ दिन बाद गुरु के पूरे शरीर में कोढ़ निकला और संदीपक की अग्निपरीक्षा शुरु हो गयी। गुरु कुछ समय बाद अंधे हो गये। शरीर कुरूप और स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया। संदीपक के मन में लेशमात्र भी क्षोभ नहीं हुआ। वह दिन-रात गुरुजी की सेवा में तत्पर रहने लगा। वह कोढ़ के घावों को धोता, साफ करता, दवाई लगाता, गुरु को नहलाता, कपड़े धोता, आँगन बुहारता, भिक्षा माँगकर लाता और गुरुजी को भोजन कराता।

गुरुजी को मिजाज और भी क्रोधी एवं चिड़चिड़ा हो गया। वे गाली देते, डाँटते, तमाचा मार देते, डंडे से मारपीट करते और विविध प्रकार से परीक्षा लेते। संदीपक खूब शांति से, धैर्य से यह सब सहते हुए दिन प्रतिदिन ज्यादा तत्परता से गुरु की सेवा में मग्न रहने लगा। धनभागी संदीपक के हृदय में गुरु के प्रति भक्तिभाव अधिकाधिक गहरा और प्रगाढ़ होता गया।

संदीपक की ऐसी अनन्य गुरुनिष्ठा देखकर काशी के अधिष्ठाता देव भगवान विश्वनाथ उसके समक्ष प्रकट हो गये और बोलेः “तेरी गुरुभक्ति एवं गुरुसेवा देखकर हम प्रसन्न हैं। जो गुरु की सेवा करता है वह मानो मेरी ही सेवा करता है। जो गुरु को संतुष्ट करता है वह मुझे ही संतुष्ट करता है। इसलिए बेटा ! कुछ वरदान माँग ले।” संदीपक ने अपने गुरु की आज्ञा के बिना कुछ भी माँगने से मना कर दिया। शिवजी ने फिर से आग्रह किया तो संदीपक गुरु से आज्ञा लेने गया और बोलाः “शिवजी वरदान देना चाहते है। आप आज्ञा दें तो मैं वरदान माँग लूँ कि आपका रोग एवं अंधेपन का प्रारब्ध समाप्त हो जाये।”

गुरु ने संदीपक को खूब डाँटते हुए कहाः “सेवा करते-करते थका है इसलिए वरदान माँगता है कि मैं अच्छा हो जाऊँ और सेवा से तेरी जान छूटे ! अरे मूर्ख ! जरा तो सोच कि मेरा कर्म कभी न कभी तो मुझे भोगना ही पड़ेगा।”

इस जगह पर कोई आधुनिक शिष्य होता तो गुरु को आखिरी नमस्कार करके चल देता। संदीपक वापस शिवजी के पास गया और वरदान के लिए मना कर दिया। शिवजी आश्चर्यचकित हो कि कैसा निष्ठावान शिष्य है ! शिवजी गये विष्णुलोक में और भगवान विष्णु से सारा वृत्तान्त कहा। भगवान विष्णु भी संतुष्ट हो संदीपक के पास वरदान देने के लिए प्रकटे।

गुरुभक्त संदीपक ने कहाः “प्रभु ! मुझे कुछ नहीं चाहिए।” भगवान ने फिर से आग्रह किया तो संदीपक ने कहाः “आप मुझे यही वरदान दें कि गुरु में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। गुरुदेव की सेवा में निरंतर प्रीति रहे, गुरुचरणों में दिन-प्रतिदिन भक्ति दृढ़ होती रहे। इसके अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए।” ऐसा सुनकर भगवान विष्णु ने संदीपक को गले लगा लिया।

जब तक गुरू का हृदय शिष्य पर संतुष्ट नहीं होता, तब तक शिष्य में ज्ञान प्रकट नहीं होता। उसके हृदय में गुरु का ज्ञानोपदेश पचता नहीं है। गुरु का संतोष ही शिष्य की परम उपासना है, परम साधना है। गुरु को जो संतुष्य करता है, प्रसन्न करता है उस पर सब संतुष्ट हो जाते हैं। गुरुद्रोही पर विश्वात्मा हरि रूष्ट होते हैं। आज संदीपक जैसे सत्शिष्यों की गाथा का वर्णन सत्शास्त्र कर रहे हैं। धन्य हैं ऐसे सत्शिष्य !

संदीपक ने जाकर देखा तो वेदधर्म मुनि स्वस्थ बैठे थे। न कोढ़, न कोई अंधापन, न अस्वस्थता ! शिवस्वरूप सदगुरु श्री वेदधर्म ने संदीपक को अपनी तात्त्विक दृष्टि एवं उपदेश से पूर्णत्व में प्रतिष्ठित कर दिया। वे बोलेः “वत्स ! धन्य है तेरी निष्ठा और सेवा ! जो इस प्रसंग को पढ़ेंगे, सुनेंगे अथवा सुनायेंगे, वे महाभाग मोक्ष-पथ में अडिग हो जायेंगे। पुत्र संदीपक ! तुम धन्य हो ! तुम सच्चिदानन्दस्वरूप हो।”

गुरु के संतोष से संदीपक गुरुतत्त्व में जग गया, गुरुस्वरूप हो गया।

अपनी श्रद्धा को कभी भी, कैसी भी परिस्थिति में गुरु पर से तनिक भी कम नहीं करना चाहिए। गुरु परीक्षा लेने के लिए कैसी भी लीला कर सकते हैं। निजामुद्दीन औलिया ने भी अपने चेलों की परीक्षा ली थी। खास-खास 24 चेलों में से भी 2-2 करके फिसलते गये। आखिरी ऊँचाई तक अमीर खुसरो ही डटे रहे। संदीपक की तरह वे अपने सदगुरु की पूर्ण कृपा को पचाने में सफल हुए।

गुरू आत्मा में अचल होते हैं, स्वरूप में अचल होते हैं। जो हमको संसार-सागर से तारकर परमात्मा में मिला दें, जिनका एक हाथ परमात्मा में हो और दूसरा हाथ जीव की परिस्थितियों में हो, उन महापुरुषों का नाम सदगुरु है।

सदगुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।

गुरु गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।

बलिहारी गुरु आपने, गोबिन्द दियो बताय।।

(प्रेषकः आर.सी. मिश्र)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 13,14. अंक 207.

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उत्तम में उत्तम सेवक हैं भगवान !


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

भगवान जैसा सेवक त्रिलोकी में मिलना असम्भव है। भगवान हमारे स्वामी तो हैं ही हैं, लेकिन भगवान जैसा सेवक भी हमारा दूसरा कोई नहीं हो सकता। कितनी सेवा करते हैं हमारी ! माँ हमारे शरीर की जन्मदात्री तो है लेकिन माँ  जैसी हमारी देखभाल करने वाली कोई सेविका नहीं मिल सकतीतत। ऐसे ही भगवान जैसा सेवक दूसरा नहीं मिल सकता है। भगवान इतने सामर्थ्यवान होते हुए भी ऐसी सेवा करते हैं कि आपको क्या बतायें !

भगवान सेवक बनने को भी तैयार, सखा बनने को भी तैयार, माता बनने को भी तैयार, पिता बनने को भी तैयार। कैसे हैं भगवान ! हे प्रभु ! तू तो तू ही है ! भगवान की सर्वव्यापकता, भगवान की सहजता, सुलभता, भगवान की परम सुहृदता, भगवान का परम स्नेह, भगवान की परम रक्षा और भगवान का परम प्रेम… मैं कितना बोलूँगा ! एक आसाराम नहीं, हजार आसाराम हें और एक-एक आसाराम  की हजार हजार जिह्वाएँ हो, फिर भी भगवान की लीला, भगवान की सेवा, भगवान की उदारता का पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर सकते।

मेरी चार दिन की भक्ति और मैं सब कुछ फेंककर बैठ गया और जोर मारा कि

सोचा मैं न कहीं जाऊँगा,

यहीं बैठकर अब खाऊँगा।

जिसको गरज होगी आयेगा,

सृष्टिकर्ता खुद लायेगा।।

ऐसा सेवक को कहा जाता है, स्वामी को थोड़े ही कहा जाता है – सृष्टिकर्ता खुद लायेगा। साधनाकाल की यह बात याद आयी तो मैंने अपने आपको प्यार से थोड़ा कोसा। सब कुछ फेंककर मैं बैठ गया और सृष्टिकर्ता को चैलेंज किया तो कैसे भी करके उसने खिलाया। यह तो उसकी उदारता है, सज्जनता है। अगर कोई एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन नहीं लाता और उसी जगह पर गुंडें को भेजता, साँपों को भेजता तो हम क्या करते ? अपने आपको ही पूछा और मैं खूब हँसा कि उसकी कितनी उदारता है ! वह कितना कितना ख्याल रखता है ! बच्चा बोल देता है माँ को कि ‘मैं नहीं खाऊँगा…. जिसको गरज होगी खिलायेगा…..’ तो माँ क्या डंडा लेकर उसको पीटेगी अथवा भूखा रखेगी ?

‘मेरे बाप ! खा ले’ ऐसा करके खिलायेगी। तो माँ जैसी सेविका मिलना सम्भव नहीं है। ऐसे ही भगवान जैसा सेवक मिलना सम्भव नहीं है। भगवान हमारे रक्षक हैं, पोषक है, समर्थ हैं – सब कुछ कर सकते हैं और प्राणिमात्र के सुहृद हैं। सुहृद सर्वभूतानाम्। इस बात को आप जान लो, हृदयपूर्वक मान लो तो आपको शांति हो जायेगी। भगवान जो करते हैं अच्छे के लिए करते हैं – दुश्मन देकर हमारा अहंकार और असावधानी मिटाते हैं, मित्र और सज्जन देकर हमारा स्नेह और औदार्य बढ़ाते हैं…. न जाने कैसी कैसी लीला करते करते सदगुरु के द्वारा ज्ञान का उपदेश दे के हमको ब्रह्म बना देते हैं, जीवन्मुक्त बना देते हैं। कहाँ तो एक बूँद वीर्य से जीवन की शुरुआत होती है और कहाँ ब्रह्म बना देते हैं ! यह उनकी करुणा कृपा नहीं है तो क्या किसी की चालाकी है ? एक बूँद से शुरुआत हुई शरीर की, कैसे-कैसे पढ़ाया, कैसा-कैसा संग, कैसा कैसा सत्संग दिया, कैसा कैसा मौका दिया, कैसे भी करके हमकोक यहाँ तक पहुँचाया कि हम भगवान से दादागिरी भी कर सकते हैं ! दादागिरी की लाज रखने वाला तू कैसा है ! तेरी कैसी करुणा है!! कैसी कृपा है !!!

भगवान सेवक भी हैं, सखा भी हैं, नियंता भी हैं, समर्थ भी हैं और असमर्थ भी हैं। अहं भक्तपराधीनः….. ‘मैं भक्तों के अधीन हूँ।’ ऐसा कहने वाला भगवान विश्व के किसी मजहब में हमने नहीं देखा, नहीं सुना। भगवान ने अर्जुन को कहाः

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

‘सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से (कर्तृभाव से) मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।’

(गीताः 18.66)

जिम्मेदारी भी उठायी। ये कैसे हैं भगवान कि अपने सिर पर जिम्मेदारी भी ले लेते हैं !

भक्त मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन को दास।

शबरी के जूठे बेर खाने में संकोच नहीं ! द्रौपदी की जूतियाँ अपने दुशाले में उठायीं, भक्त प्रह्लाद की सेवा की – अनेक विघ्नों में उसकी रक्षा की और भी अनेकों नामी-अनामी भक्तों के, संतों के जीवन में भगवान की सेवा का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। हमारे-आपके जीवन में भी जो कुछ सुख-शांति, माधुर्य, औदार्य है वह उस दयालु प्रभु की ही सेवा का प्रभाव है। उत्तम में उत्तम सेवक हैं भगवान !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2010, पृष्ठ संख्या 17,30

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सर्वार्थ-सिद्धि का मूलः सेवा


इस कलियुग में श्री शिवानंद स्वामी की पुस्तक ‘गुरुभक्तियोग’ गुरुभक्ति बढ़ाने में बड़ी मददगार है । उसमें लिखा है कि ‘गुरुभक्तियोग एक सलामत योग है ।’ जिसे सलामत योग का फायदा उठाना है उसे ‘गुरुभक्तियोग पढ़ना चाहिए ।

हमेशा सजाग रहो । ‘मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए । जो है वह इष्ट का है, इष्ट के लिए है ।’ ऐसे भाव रखन वाले सेवक को स्वामी सहज में मिल जाते हैं । जैसे संदीपक गुरु की सेवा में लग गया तो भगवान नारायण के दर्शन बिन बुलाये हो गये ।

सेवा में माँग नहीं होती है, स्वार्थ नहीं होता है । सेवा हृदय से जुड़ी होती है । सेवा करने वाले में अपने अधिकार की परवाह नहीं होती है । प्रीति है, सेवा है तो अधिकार उसका दास है । जैसे सेठ की कोई सेवा करता है तो क्या उसे सेठ के बँगले में रहने को नहीं मिलता है ? गाड़ी में बैठने को नहीं मिलता है ? ऐसे ही सेठों का सेठ जो गुरुतत्त्व है अथवा भगवान है, उनकी प्रसन्नता के लिए, उनकी प्रीति के लिए जब सेवा की जाती है तो उस सेवा में स्वार्थ नहीं होता । सेवा करते-करते सेवक इतना बलवान हो जाता है कि सेवा का बदला वह कुछ नहीं चाहता है फिर भी उसे उसका फल मिले बिना नहीं रहता है । उसके चित्त की शांति, आनंद, विवेक सेवा में उसकी सफलता की निशानी है ।

सेवक का विवेक यही है कि सेवा करते समय जो भूल हुई वह दुबारा न हो, सावधान हो जाय । इससे तो उसकी कार्य करने की योग्यता और भी बढ़ जाती है । सेवा करते-करते सेवक स्वयं स्वामी बन जाता है, इन्द्रियों का, मन का, बुद्धि का स्वामी बन जाता है । अपने शरीर, मन, इन्द्रियों को ‘मैं’ मानने की गलती निकल जाती है । वह मन, इन्द्रियों और शरीर से पार हो जाता है, फिर चाहे व तोटकाचार्य जी हों, पूरणपोड़ा हों अथवा एकनाथ जी महाराज हों । प्रेम का आरंभ है निष्काम सेवा । प्रीति में कमी और लापरवाही के दुर्गुणवाला व्यक्ति कुत्ते से भी गया-बीता माना जाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 30 अंक 199

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