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अंतरात्मा में सुखी रहो और सुखस्वरूप हरि का प्रसाद बाँटो-पूज्य बापू जी


भारतीय संस्कृति कहती हैः

सर्वस्तरतु दुर्गाणि सर्वो भद्राणि पश्यतु । सर्वः सद्बुद्धिमाप्नोतु सर्वः सर्वत्र नन्दतु ।।

सर्वस्तरतु दुर्गाणि…. हम सब अपने दुर्ग से, अपने-अपने कल्पित दायरों से, मान्यताओं ते तर जायें । सर्वो भद्राणि पश्यतु… हम सब मंगलमय देखें । सर्वः सद्बुद्धिमाप्नोतु…. हम सबको सदबुद्धि प्राप्त हो । बुद्धि तो सबके पास है । पेट भरने की, बच्चे पैदा करने की, समस्या आये तो भाग जाने की, सुविधा आये तो डेरा जमाने की बुद्धि…. इतनी बुद्धि तो मच्छर में भी है, कुत्ता, घोड़ा, गधा, मनुष्य – सभी में है लेकिन हमारी संस्कृति ने कितनी सुंदर बात कही ! हम सबको सद्बुद्धि प्राप्त हो ताकि सत्य (सत्यस्वरूप परमात्मा ) में विश्रांति कर सकें । सर्वः सर्वत्र नन्दतु…. सभी हर जगह आनंद से रहें । हम सब एक दूसरे को मददरूप हों ।

तो उत्तम साधक को उचित है कि अपने से जो छोटा साधक है उसको आध्यात्मिक रास्ते में चलने में मदद करे और छोटे साधक का कर्तव्य है कि उत्तम साधक, ऊँचे साधक का सहयोग करे । जो ज्ञान-ध्यान में छोटा है वह साधक सहयोग क्या करेगा ? जैसे सद्गुरु ज्ञान-ध्यान में आगे हैं और शिष्य छोटा साधक है । वह सद्गुरु की सेवा कर लेता है…. अपने गुरु मतंग ऋषि के आश्रम में शबरी बुहारी कर देती है तो मतंग ऋषि का उतना काम बंट जाता है और वे आध्यात्मिकता का प्रसाद ज्यादा बाँटते हैं… तो सद्गुरु की सेवा करने वाले शिष्य भी पुण्य के भागी बनते हैं । इस प्रकार छोटे साधक सेवाकार्य को और आगे बढ़ाने में ऊँचे साधकों को मददरूप बनें ।

जो सेवा में  रुचि रखता है उसी का विकास होता है । आप अपना व्यवहार ऐसा रखो कि आपका व्यवहार तो हो एक-दो-चार दिन का लेकिन मिलने वाला कई वर्षों तक आपके व्यवहार को सराहे, आपके लिए उसके हृदय से दुआएँ निकलती रहें । स्वयं रसमय बनो, औरों को भी रसमय करो । स्वयं अंतरात्मा में सुखी रहो और दूसरों के लिए सुखस्वरूप हरि के द्वारा खोलने का पुरुषार्थ करो । स्वयं दुःखी मत रहो, दूसरों के लिए दुःख के निमित्त मत  बनो । न फूटिये न फूट डालिये । न लड़िये न लड़ाइये, (अंतरात्मा परमात्मा से) मिलिये और मिलाइये (औरों को मिलाने में सहायक बनिये) ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2019, पृष्ठ संख्या 2, अंक 322

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सेवा में दृष्टिकोण कैसा हो ?


गीता (17.27) में आता हैः

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ।।

उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म ‘सत्’ कहलाता है क्योंकि वह मोक्ष का साधन है ।

सद्भाव से सत्सेवा होती है, दृष्टिकोण में व्यापकता रहती है । आत्मवतु सर्वभूतेषु…. सब प्राणियों के प्रति अपने जैसा बर्ताव करना, यह है व्यापक दृष्टिकोण । दृष्टिकोण यदि संकीर्ण हो तो वास्तविक सेवा नहीं हो सकती, सेवा में निष्कामता नहीं आ सकती, कर्ताभाव की कलुषितता नहीं मिट सकती । स्वार्थी व्यक्ति अपने लिए बहुत कुछ सहन कर लेता है पर दूसरे के लिए कुछ भी सहना नहीं चाहता, उसका दृष्टिकोण संकीर्ण है । परंतु जिसका दृष्टिकोण व्यापक होता है वह दूसरों के हित के लिए सहर्ष कष्ट सहता है ।

व्यापक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति को केवल दया या कारूण्य भाव का ही सुख नहीं मिलता अपितु आत्मिक उदारता, अद्वैत माधुर्य, आत्मतृप्ति भी मिलते हैं । ऐसे व्यक्ति की सेवा-परोपकार करके भी यह नहीं लगता कि मैंने किसी पर कोई उपकार किया है । वासुदेवः सर्वमिति… ‘सब कुछ वासुदेव ही है’ ऐसा निश्चय उसकी मति में दृढ़ होने लगता है । उसके जीवन में हर हाल में सम और प्रसन्न रहने की कला आ जाती है । ऐसा व्यापक दृष्टिकोण ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के वेदांत-ज्ञान के सत्संग से एवं उनकी प्रीतिपूर्वक की सेवा से बनता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2019, पृष्ठ संख्या 17 अंक 320

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ऊँचें में ऊँचा है सेवा-धर्म ! – पूज्य बापू जी


सेवा साधक के लिए अपनी क्षुद्र वासना व अहं मिटाने की परम औषधि है । सेवा से अंतःकरण की शुद्धि होती है और शुद्ध अंतःकरण का ब्रह्मज्ञान से सीधा संबंध है । यह सेवा ही है जो सर्वेश्वर तक पहुँचने का पथ प्रशस्त करती है । निष्काम भाव से सभी की सेवा करने से स्वयं की सेवा का भी द्वार खुल जाता है ।

किसी को बुरा नहीं मानो, किसी का बुरा नहीं चाहो, किसी का बुरा मत करो तो निर्भय हो जाओगे , इससे दुनिया की बड़ी सेवा हो जायेगी । जो भी कर्म करते हो उसका बदला न चाहो तो भगवान और शांति अपने हाथ की चीज़ है । अनेक जन्मों की बिगड़ी बाजी सुधर जायेगी । हमारे आश्रम के बच्चे-बच्चियाँ देखो, सेवाभाव से कर्मयोगी हो जाते हैं ।

सेवा के लिए सेवा करें । भगवान की प्रसन्नता के लिए, भगवान को पाने के लिए सेवा करें । ‘सब तें सेवक धरम कठोरा ।’ सेवा-धर्म सबसे ऊँचा है । यह विकारों को, अहंकार को, लापरवाही – सारे दुर्गुणों को हटा देता है । कोई सेवा के नाम पर किसी का फायदा उठाता है कि ‘मैं तो सेवा करता हूँ, मेरे को यह चाहिए, वह चाहिए…..’ तो उसका सत्यानाश हो जाता है । कोई वाहवाही के लिए सेवा करता है तो उसको भी वह सेवा ईश्वरप्राप्ति नहीं करायेगी । यदि कोई सुविधा के लिए सेवा करता है कि ‘चलो, सेवा करेंगे तो अपने को सुविधा मिलेगी ।’ तो सुविधा तो मिल जायेगी लेकिन सेवा का फल जो भगवान हैं वे नहीं प्रकट होंगे । सेवा से भगवान प्रकट हो सकते हैं । शबरी ने सेवा ही तो की । अंतरात्मा राम भी प्रकट हुए और बाहर दशरथनंदन राम भी आ गये, सेवा में इतनी ताकत है ।

अगर मैं वाहवाही की इच्छा से, कुछ लेने की इच्छा से सत्संग करता तो इतना लाभ नहीं होता । ‘लोगों का भला हो’ इस भाव से, ईमानदारी से करता हूँ तो भगवान की शक्तियाँ मेरे कार्य में लग जाती  हैं । भगवान भी लग जाते हैं लोगों के अंतरात्मा में प्रेरणा देकर । भगवान और भगवान की सत्ता निष्काम कर्मयोगी के साथ कदम मिला लेती है ।

‘जिनि सेविया तिनि पाइआ मानु ।’

जिन्होंने ईमानदारी से, तत्परता से सेवा की उनको लोग मान देते हैं । लेकिन मान का भोगी नहीं होना चाहिए, हम मान के लिए सेवा नहीं करते, मान के बदले में सेवा क्यों खोना ? मान हो चाहे अपमान हो… हम जानबूझ के जहाँ अपमान हो ऐसी जगह चले जाते थे । मान की इच्छा भी न रखे सेवक, यश की इच्छा भी न रखे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 17 अंक 317

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