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दुःखों की कमी नहीं फिर भी दुःखी नहीं ! – पूज्य बापू जी


(श्री कृष्ण जन्माष्टमीः 28 अगस्त 2013)

श्रीकृष्ण के जीवन में आध्यात्मिक उन्नति व वैदिक ज्ञान ऐसा था कि नास्तिक लोग भी उनको योगिराज, नीतिज्ञशिरोमणि, उच्च दार्शनिक मानते थे। मुसलमानों में भी रसखान, ताज बेगम, रेहाना तैयय्यब और रहीम खानखाना आदि लोगों ने श्री कृष्ण की भक्ति और प्रशंसा करके अपना जीवन धन्य किया।

श्रीकृष्ण संघर्षों का तगड़ा अनुभव करते हुए संघर्षों के बीच कैसे मुस्कराते रहे, यह उनकी लीलाओं और जीवन-संदेश में है। श्रीकृष्ण के आने के निमित्त माँ-बाप को कारावास मिला, उनके छः भाई मारे गये और स्वयं श्री कृष्ण जन्में हैं कारागृह में ! जन्मते ही पराये घर लिवाये गये। श्रीकृष्ण अष्टमी को प्रकटे हैं और चौदस को पूतना जहर भरकर आयी। जहरमिश्रित दूध पीना पड़ा। दो महीने के हुए तो शकटासुर आ गया, कभी धेनुकासुर आया, कभी बकासुर आया और कृष्ण को निगल गया। गायें चरानी पड़ीं, नृत्य सिखाने वाले तोक का तमाचा सहना पड़ा, कंस मामा का पूरा राजशासन विरोधी था। 17 बार शत्रु को मार भगाया परंतु 18वीं बार स्वयं भागना पड़ा। एक ही वस्त्र पर कई महीने रहे और फिर छुपकर द्वारिका बसायी। न जाने कितने उपद्रव हुए लेकिन आधिभौतिक उपद्रवों को श्रीकृष्ण ने महत्त्व नहीं दिया तो आपको भी महत्त्व नहीं देना चाहिए। कृष्ण अपने आनंदस्वभाव में रहे तो आपको भी आनंदस्वभाव में रहना चाहिए। कृष्ण अपने ज्ञान प्रकाश में जिये तो आपको भी ज्ञान प्रकाश में जीना चाहिए।

ʹमहाभारतʹ में आता है कि श्रीकृष्ण के जीवन में दुःख के निमित्तों की कमी नहीं है लेकिन शोक की एक रेखा भी नहीं है। सदा हँसते रहे, मुस्कराते रहे, गीत गाते रहे। कैसी भी परिस्थितियाँ आयीं लेकिन भगवान श्रीकृष्ण उन परिस्थितियों को सत्य मान के मुसीबतों का हौवा बनाकर अपने सिर पर ढोते नहीं थे बल्कि उऩ पर नाचते थे। महाभारत का युद्ध हो रहा है पर श्रीकृष्ण की बंसी बज रही है। कुछ के कुछ आरोप लग रहे हैं और बंसी बज रही है। जयकारे लग रहे हैं पर चित्त में समता है।

सुख-दुःख में कैसे जियें ? सुख-दुःख को साधन कैसे बनायें ? यह सब श्रीकृष्ण के अनुभव की पोथी ʹगीताʹ में है। गीता श्रीकृष्ण के अनुभवजन्य ज्ञान की स्मृति (स्मृति-ग्रंथ) है। गीता किसी सम्प्रदाय अथवा मजहब की किताब नहीं है। इसमें श्रीकृष्ण के द्वारा जितना बुद्धि का आदर किया गया है, ऐसा और किसी जगह पर नहीं है। गीता कैसी भी परिस्थिति में अपनी बुद्धि को डाँवाडोल न होने देने की सीख देती है।

जैसे अर्जुन के जीवन में उतार-चढ़ाव व दुःख आये लेकिन भगवान के आगे दुखड़ा रोया तो वह दुःख भी ʹविषादयोगʹ हो गया। अर्जुन दुःखी हुए, बोलेः ʹमेरा जीवन चलेगा ही नहीं….।ʹ सारी मनोवृत्तियाँ शोक से भर गयीं और उत्साह ठंडा हो गया लेकिन श्रीकृष्ण ने ज्ञान तथा उत्साह भर दिया तो महाभारत का युद्ध भी आराम से जीत लिया।

श्रीकृष्ण बहुत ऊँची बात बताते हैं कि दुष्कृत और सुकृत से आप ऊपर उठ जाओ। ऐसा और कोई मार्ग नहीं है, जैसा श्रीकृष्ण बता रहे हैं। पैसे चले गये तो दुःख हो गया और आ गये तो सुख हो गया लेकिन गीता तो कहती है – जो आया वह भी स्वप्नतुल्य, गया वह भी स्वप्नतुल्य।

श्रीकृष्ण आनंद-अवतार हैं। ʹयह खाऊँ, यह भोगूँ, यह करूँ, यह न करूँ….ʹ – ऐसी कोई चाह उनको नहीं है इसलिए कृष्ण आनंद में हैं। कृष्ण खुले आनंद में हैं तो उनको देखकर गौएँ, बछड़े और गोप-गोपियाँ आनंदित हो जाते हैं।

देवकी की कोख से श्रीकृष्ण जन्में हैं लेकिन जितनी प्रीति यशोदा को मिलती है उतनी देवकी को नहीं। देवकी शरीर से जन्म देती है लेकिन यशोदा तो हृदयपूर्वक यश दे रही है। यशोदा तो आप बन सकते हैं। जरूरी नहीं कि आपके पेट से भगवान पैदा हों, आपके हृदय में भगवान अभी भी प्रकट हो सकते हैं। वाह ! वाह !! हर परिस्थिति में वाह ! भगवान को यश दो तो आपकी बुद्धि यशोदा हो जायेगी और आत्म कृष्ण तो हैं ही हैं। श्रीकृष्ण जो आकृति लेकर आये उतने ही श्रीकृष्ण नहीं हैं, वेदों में श्रीकृष्ण के प्राकट्य से पहले भी ʹकृष्णʹ का नाम था। जो कर्षित कर दे, आकर्षित, आनंदित, आह्लादित कर दे उस अंतर्यामी विभु परमेश्वर का नाम कृष्ण है।

मनुष्य जितनी ऊँचाई का धनी हो सकता है उतनी ऊँचाई के धनी थे अर्जुन और श्रीकृष्ण उनके साथ में थे। अर्जुन सशरीर स्वर्ग जाते हैं, उर्वशी जैसी अप्सरा के मोह-जाल को ठुकरा देते हैं, स्वयं श्री कृष्ण उनके रथ की बागडोर सँभालते हैं फिर भी अर्जुन का दुःख नहीं मिटता। जब श्रीकृष्ण कहते हैं-

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।

ʹहे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।ʹ (गीताः 18.62)

शरीर से जो करो, उस परमात्मा को समझने के लिए करो। मन से जो सोचो, उसके लिए सोचो और बुद्धि से जो निर्णय करो, अपने सत्-चित्-आनंदस्वभाव की तरफ जाने के लिए ही करो तो दुःखों से पार हो जाओगे, जैसे अर्जुन को ज्ञान हो गया – ʹनष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा…ʹ

मोह बोलते हैं उलटे ज्ञान को। हम शरीर नहीं हैं लेकिन मानते हैं अपने को शरीर ! मोह सभी व्याधियों का मूल है। ʹरामायणʹ में कहा गयाः

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।

तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

गीता मोह मिटाने की और अपने सच्चिदानंद स्वभाव में जगने की सुंदर युक्तियाँ देती है।

तो श्रीकृष्ण का प्राकट्य कितना महत्त्वपूर्ण है और कितना रहस्यमय है ! श्री कृष्ण की महत्ता समझकर आप श्रीकृष्ण के भक्त हो जाओ इसलिए जन्माष्टमी नहीं है। आप कृष्ण के अनुभव से सम्पन्न होकर निर्दुःख जीवन जियो, मुक्तात्मा, दिव्यात्मा, समाहित आत्मा (शांतात्मा) बनो। आप जिस मजहब में हो, जिस इष्टदेव को मानते हों, चाहे आपके इष्टदेव कृष्ण हों, शिव हों, राम हों लेकिन कृष्ण की जीवनलीलाओं से आप अपने जीवन को लीलामय बना लीजिये। आपका जीवन बोझ न हो इसलिए जन्माष्टमी का पर्व है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 248

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अंधकार में अवतार लिया प्रकाशमय जग को किया


श्री कृष्ण जन्माष्टमीः 2 सितम्बर 2010

(पूज्यपाद बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी की रात… बारिश हो रही है और वसुदेव – देवकी कारागार में हैं…. उनके रिश्तेदार भय और आतंक से आतंकित हैं, दुःख में हैं, शोषित हो रहे हैं। ऐसों के यहाँ आने के लिए भगवान श्रीकृष्ण मध्यरात्रि, अँधेरी रात चुनते हैं। अंधकार में पड़े हुए जीव के यहाँ, साधक के यहाँ प्रकाशमय श्रीकृष्ण, दुःख में डूबे हुए समाज के यहाँ सुख स्वरूप श्रीकृष्ण, विषाद में पड़े हुए लोगों के बीच, माधुर्य बरसाने वाले कृष्ण का अवरतरण होता है। कहाँ होता है ? जेल में किसके यहाँ होता है ? वसुदेव-देवकी के यहाँ।

शुद्ध बुद्धि का नाम है देवकी और सत्त्वमय प्रकाश का नाम है वसुदेव। इस जीव का सत्त्वमय प्रकाश हो और शुद्ध बुद्धि हो तो इसके हृदय में भी श्रीकृष्ण का अवतरण होता है, प्रागट्य तो वसुदेव-देवकी के यहाँ होता है परंतु पोषण होता है नंद-यशोदा के यहाँ। वसुदेव जी कृष्ण को ले गये और यशोदा की गोद में रख दिया। यशोदा सोयी है, न माला कर रही है, न इंतजार कर रही है, सोयी हुई यशोदा के पास कृष्ण पहुँचते हैं। अपने लीला-माधुर्य में सराबोर करने के लिए श्रीकृष्ण क्या करते हैं ? रोते हैं।

यशोदा के यहाँ शक्ति का, माया का जन्म हुआ है और वसुदेव – देवकी के यहाँ आनंद का प्रागट्य हुआ है। शक्तिवाले सोते रहते हैं और आनंदवाले जागते और जगाने वाले को छुड़ाने का काम करते हैं। वसुदेव जी माया को ले गये। कृष्ण ने ऊवाँऽऽऽ…..ऊवाँऽऽऽ करके मैया को जगाया कि ‘मैं आया हूँ तेरे घर, अब तू कब तक सोयेगी ?’ सोये हुए को जगाना यह भगवान का भगवदपना है। असाधनवाले को भी सहज में मिलना यह भगवान का भगवदपना है।

जन्माष्टमी के दिन किया हुआ जप अनंत गुना फल देता है। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछाः “जन्माष्टमी के उपवास से क्या फायदा होता है ?” श्रीकृष्ण बोलेः “उस व्यक्ति के जीवन में धन-धान्य, यश की कमी नहीं रहेगी।” जन्माष्टमी के दिन अगर कोई संसार-व्यवहार करता है तो विकलांग संतान होगी अथवा तो जानलेवा बीमारी पकड़ लेती है।

श्रीकृष्ण मथुरा जा रहे हैं तो सड़कों पर लोग दायें-बायें खड़े हैं और उनके रूप-लावण्य, माधुर्य, उनकी चितवन का आनंद ले रहे हैं। लोग तो कृष्ण को देखकर गदगद हो रहे हैं पर कृष्ण एक कुबड़ी स्त्री पर टिकटिकी लगाये हुए हैं। उसका नाम है कुब्जा, वह कंस के पास अंगराग लेकर जा रही है। कृष्ण बोलते हैं- “ओ सुन्दरी !”

उस कुरुपा में भी सौंदर्य देखने वाला कैसा है तुम्हारा अकालपुरुष ब्रह्म ! कुब्जा ने सोचा कि ‘किसी सुंदरी को बुलाते होंगे, मैं तो कुब्जा हूँ।’ अनसुना करके खबुर-खबुर जूतियाँ घसीटती हुई धूल उड़ाती जा रही है। श्रीकृष्ण ने फिर से आवाज लगायीः “ओ सुन्दरी !” उसने देखा कि यहाँ तो छोरे-छोरे हैं, कोई छोरी तो है नहीं ! वह आगे बढ़ी। श्रीकृष्ण ने फिर से प्रेम में भरकर कहाः “ओ सुन्दरी !” अब उसका छुपा हुआ प्रेमस्वभाव छलका, उसने कहाः “बोलो सुन्दर !”

कृष्ण बोलेः “यह अंगराग मुझे दोगी ?”

बोलीः “हाँ ! लो, लगा लो, लगा लो।”

बात बन गयी। कुछ न कुछ दिये बिना जीव कैसे मुझे पायेगा ! अंगराग माँग लिया। विश्व को देने वाले वे दाता अंगराग लगाने वाली एक साधारण कुब्जा-कुरुपा, कुबड़ी को बोलते हैं- “ए सुंदरी !” और वह कृष्ण को बोलती हैः “बोलो सुन्दर !” काम बन गया !

श्रीकृष्ण बताते हैं कि प्रेम ही विश्व में राज्य करता है। स्वामी रामतीर्थ बोलते थे यह कायदा-कानून तो अपने अधिकार की रक्षा और दूसरे का शोषण करने का एक राजमार्ग है। डण्डे के बल से, आतंक के बल से जो करवाया है, वह लोग बेचारे मजबूरन करते हैं और व्यवस्था है त वह प्रेम के बल से है। माँ बच्चे को प्रेम से पालती-पोसती है। बच्चा भी कर्तव्य समझकर प्रेम से माँ-बाप, गुरु या समाज की सेवा करता है। संत कबीर जी कहते हैं-

प्रेम न खेतों ऊपजे प्रेम न हाट बिकाय।

राजा चहो प्रजा चहो शीश (अहं) दिये ले जाय।।

और तुम्हारा वास्तविक स्वभाव प्रेम है। प्रेम जब धन में फँसता है तो लोभ बनता है, परिवार में फँसता है तो मोह बनता है, शरीर की अहंता में फँसता है तो अहंकार बनता है। प्रेम अगर किसी नाम-रूप में उलझता है तो मायामय बनकर फँसाता है और प्रेम को अगर शुद्ध-बुद्ध रूप में देखा जाय तो वह परमात्मा ही है।

अंगराग लिया और उसके पैर पर पैर रखके ठोड़ी को यूँ झटका मारा तो सचमुच वह कुबड़ी सुंदरी हो गयी। कृष्ण कन्हैया लाल की जय !

भगवान का भगवानपना केवल अवतारकाल में ही नहीं था, वह अब भी है। हमारा भगवान यह नहीं जो कभी हो और कभी न हो, कहीं हो और कहीं न हो, किसी में हो और किसी में न हो, उसको भारतवासी पूर्ण परमात्मा नहीं मानते। आया और चला गया, फिर नहीं है उसको हम भगवान नहीं मानते। भगवान तो हम मानते हैं जो पहले थे, अभी हैं और बाद में रहेंगे। कभी साकार रूप मे विशेष लीला करने के लिए प्रेमावतार में आ गये, मर्यादा-अवतार में आ गये, कच्छप-अवतार में आ गये, मत्स्य-अवतार में आ गये और सर्वत्र ज्यों के त्यों भरपूर भी रहे… जिस-जिस अवतार में जितनी बुद्धि, योग्यता और सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, उतना ही प्रगट करते हैं और फिर वह अवतार अन्तर्धान हो जाता है, फिर भी भगवान सबमें रहते हैं। जैसे कहीं-कहीं छोटी तरंग, कहीं बड़ी, कहीं बहुत बड़ी तरंग…. फिर भी समुद्र में पानी हो तो व्याप रहा है।

जीवन केवल समस्याएँ और उनके समाधान के लिए नहीं है। जीवन हास्य के लिए, विनोद के लिए, आनंद के लिए, माधुर्य के लिए, अपने सुखस्वभाव को छलकाने के लिए है और अंतरात्मा में विश्रान्ति पाने के लिए है। श्रीकृष्ण के पास गंधर्व-विद्या है। उसमें वाद्ययंत्र भी होता है, गायन और नृत्य भी होता है। वाद्य में भी बंसी सर्वोपरि है तो उसको बजाने वाले श्रीकृष्ण भी सर्वोपरि हैं।

श्रीकृष्ण ने इतना मन लगाकर चार वेद, चार उपवेद का ज्ञान पाया कि उनके ज्ञान की थोड़ी-सी छटा है, जो गीता होकर विश्वंदनीय हो रही है। ऐसे श्रीकृष्ण के अवतरण का दिवस है जन्माष्टमी-महोत्सव।

आप कभी यह नहीं मानना कि वे दूर हैं, दुर्लभ हैं, परिश्रम से मिलेंगे, पराये हैं, कुछ साधन होगा, कुछ तपस्या होगी, कुछ क्या-क्या होगा। तब मिलेंगे…. नहीं-नहीं। सो साहिब सद सदा हजूरे, अंधा जानत ताको दूरे। श्रीकृष्ण सुबह उठते हैं तो शांत भाव में रहते हैं। वे तुम्हें प्रेरणा देते हैं कि प्रातः उठते ही अपने आत्मस्वभाव में, आनंद-स्वभाव में, शांतस्वभाव में संकल्परहित स्थिति में टिक रहो। जिसको जाना है उसका आदर करो, जिसको माना है उसमें दृढ़ श्रद्धा करो। करने की शक्ति का, जानने की शक्ति का, मानने की शक्ति का ठीक सदुपयोग करो।

गुरु की वाणी वाणी गुर, वाणी विच अमृत सारा।

भगवान ने गुरुरूप में अर्जुन को तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया और अर्जुन ने स्थिति पायी। अर्जुन कहता हैः नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा। तो गीता के ज्ञान से ही आम आदमी को यह संदेशा मिलता है कि भगवान के साकार दर्शन के बाद भी जब भगवद्-तत्त्व का ज्ञान देने वाले गुरु हमको मिलें अथवा भगवान गुरु की भूमिका अदा करें, तब हम दुःखों से बचते हैं। इसलिए कहते हैं-

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।

मंगल तो देवता की कृपा से हो जायेगा, तपस्या से हो जायेगा, किसी के वरदान से हो जायेगा, किसी के साथ-सहयोग से हो जायेगा परंतु परम मंगल तो सदगुरु के, साक्षात्कारी महापुरुष के ज्ञान से ही होगा। श्रीकृष्ण ऐसे सदगुरु हैं, ऐसे महापुरुष हैं।

जो विद्या अरण्य में दी जाती है वह युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण ने बंसी बजाते हुए दी है। वीर अर्जुन को भी उस गीता का प्रसाद मिलता है और भक्त संजय को भी मिलता है। बाहर से और भीतर से जो अंधे हैं धृतराष्ट्र…. बाहर से आँखें नहीं हैं और भीतर से ऐसी ममता है कि भीतर से भी कुछ सूझता नहीं है, उन्हें भी गीता का प्रसाद मिला है।

वैदिक धर्म में प्रार्थनाएँ हैं, मंदिर में प्रार्थनाएँ करते हैं, यकीन-श्रद्धा है, करूणा भी है, अहिंसा भी है किंतु एक खास बात है – विशेषता यह है कि इसमें हित की प्रधानता है। अगर उँगली कटाने से हाथ बच जाता है तो उँगली काटो। अगर हाथ कटाने से शरीर बच जाता है तो हाथ कटाओ। दुर्योधन को मारने से मानवता की रक्षा होती है तो दुर्योधन को पहुँचाओ। अर्जुन कहता है कि “मैं भिक्षा माँगकर खाऊँगा, युद्ध नहीं करूँगा।” कृष्ण ने प्रोत्साहित किया कि ‘जो आततायी हैं, जो निर्दोषों को सताते हैं और फिर मानते नहीं हैं, ऐसे लोगों को दण्ड देना क्षत्रिय का कर्तव्य है।’

कर्तव्यता में देखो तो कृष्ण पूर्ण ! केवल कर्तव्य, नृत्य, हास्य- विनोद है ऐसा नहीं, वैराग्य भी उनमें पूर्ण है। भगवान के छः-के-छः ऐश्वर्य कृष्ण-अवतार में छलकते हैं। बारह साल वृंदावन नहीं आये। नहीं तो ललनाएँ तरस रही हैं, लाले पुकार रहे हैं… कैसा वैराग्य ! गोवर्धन उठाने का ऐश्वर्य भी भगवान में है। धर्म-अनुष्ठान करते हैं, धर्म भी पूर्ण है। यश भी पूर्ण है। अर्जुन और उद्धव जैसों को ज्ञान देने का सामर्थ्य श्रीकृष्ण में है।

अमीरी की ऐसी की, सब जर लुटा बैठे।

फकीरी की तो ऐसी की, ज्ञान के द्वार आ बैठे।।

जीवन में लोलुपता का अभाव, भय का, शुष्कता का अभाव देखना है तो श्रीकृष्ण के जीवन में देखो। श्रीकृष्ण के बेटे उनकी बात नहीं मानते और कभी उनके मुँह पर सुना भी देते हैं किंतु कृष्ण उदास नहीं होते। आज साधारण सेठ का बेटा नहीं मानता तो सेठ कहता हैः “मैं तो मर गया ! दो छोकरे तो मानते हैं पर तीसरा ऐसा है।” आँसू बहार रहे हैं… दो मान रहे हैं उसकी खुशी में तू बंसी बजा। श्रीकृष्ण के बेटे तो मानते ही नहीं थे। साधु-संत आते, अरे ! भीम जैसे आते, युधिष्ठिर आते तो श्रीकृष्ण खड़े हो जाते, ऐसे शिष्टाचार के धनी। और श्रीकृष्ण के छोरे तो साधु-संत जा रहे थे तो उनकी मखौल उड़ाने के लिए एक लड़के को तसला बाँध के, अंदर मूसल रख के महिला का पहनावा पहना के बोलेः “महाराज ! यह गर्भवती है। इसको बेटा होगा कि बेटी ?” संत बोलेः “न बेटा आयेगा, न बेटी आयेगी, तुम्हारा नाश करने वाला आयेगा।” लो ! इन शैतानों की शैतानियत समाज को दुःख देगी इसलिए अपने होते-होते अपने बेटों को भी ऋषियों के द्वारा रवाना करते हैं। कैसा वैराग्य ! कैसा समाज के हित की भावना से भरा हुआ यह भगवान है !!

सचमुच, हम भाग्यशाली हैं कि हमारा वैदिक धर्म में जन्म हुआ है, हम और भी महाभाग्यशाली हैं कि भारतीय संस्कृति का जो स्तम्भ है ऐसा वेद और गीता का ज्ञान सुनने और सुनाने वाले माहौल में हम पैदा हुए हैं। आप ‘दासोऽहम्-दासोऽहम्’ करके सिकुड़-सिकुड़ के दीन-हीन होकर अपनी शक्तियों को कुंठित मत करिये। आप तो संकल्प कीजियेः “मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं। भगवान विकारों के बीच भी निर्विकार हैं तो मैं भी विकारों के बीच भी निर्विकार रहूँगा। भगवान सुख में आसक्त नहीं होते और दुःख में दुःखी नहीं होते, दुःख का भी सदुपयोग करते हैं तो मैं भी ऐसा करूँगा।’

जब जाने का समय हुआ तो एक शिकारी के द्वारा संसार से विदाई ले रहे हैं। शिकारी ने देखा कि यह कोई मृग है, कसा निशाना और तीर श्रीकृष्ण के पैर के तलवे में लगा। शिकारी शिकार समझ के दौड़ता हुआ आया, देखा तो घबराया। श्रीकृष्ण बोलेः “कोई बात नहीं। मैं जानता हूँ ऐसी होनी थी तू जा, निश्चिंत हो जा।”

आखिरी श्वास लेने की वेला है और जिसने तीर मारा है उसको देखकर भी नाराजगी नहीं होती। क्या बात है ! कैसा है तुम्हारा भगवान !! ‘हाय रे, ए तू चला जाऽऽ… अब मैं प्राण-त्याग करता हूँ… आह….!!’ ऐसा करक नहीं गये। अंतिम यात्रा कैसे करनी चाहिए यह भी कृष्ण बताते हैं।

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं व यदि दुःखं स योगी परमो मतः।।

‘हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।’

(गीताः 6.32)

सुखद अवस्था आये तो भी, दुःखद अवस्था आये तो भी आप अपने परम ज्ञान में रहिये, परम चेतना में रहिये, परम आनन्द में रहिये और परमपुरुष गुरु के तत्त्व में रहिये, उलझिये मत।

कंस को तो हृदयाघात करके भेज सकते थे अथवा त और कोई दुश्मन देकर पहुँचा सकते थे परंतु भगवान का भगवदपना यह है कि एक उद्देश्य के पीछे कई कल्याणकारी उद्देश्यों को लेकर वर अव्यक्त सत्ता व्यक्त हो जाती है, निराकार साकार हो जाता है, अजन्मा सजन्मा हो जाता है, सबसे असंग रहने वाला सबका संगी बन जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 16,17,18,19  अंक 212

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श्रीकृष्ण अवतार का उद्देश्य-पूज्य बापू जी


(श्रीकृष्ण जन्माष्टमीः 14 अगस्त 2009)

मनुष्य जीवन कितना ऊँचा है कि वह भगवान का भी अवतरण करा सकता है । अपने अंतःकरण में भगवान का अवतरण, अपनी बुद्धि में भगवान का अवतरण, अपने ‘स्व’ में भगवान का अवतरण हो गया तो फिर साक्षात्कार हो जाता है । निष्काम कर्म करते हो तो कर्म में भगवान का अवतरण होता है और कर्म स्वार्थ से जुड़ा हो तो मनुष्य दुःख पाता है ।

मनुष्य को दुःख तीन बातों से होता है – एक कंस से दुःख होता है, दूसरा काल से और तीसरा अज्ञान से दुःख होता है । मथुरा के लोग कंस से दुःखी थे, यह संसार ही मथुरा है । कंस के दो रूप हैं – एक तो खपे-खपे (और चाहिए, और चाहिए….) में खप जाय और दूसरे का चाहे कुछ भी हो जाय, उधर ध्यान न दे । यह कंस का स्थूल रूप है । दूसरा है कंस का सूक्ष्म रूप – ईश्वर की चीजों में अपनी मालिकी करके अपने अहं की विशेषता मानना कि ‘मैं धनवान हूँ, मैं सत्तावान हूँ, मेरा राज्य है, मेरा वैभव है, मुझसे बड़ा कोई नहीं….।’ यह अंदर में भाव होता है ।

तीन भेद होते हैं समय, वस्तु और स्थान के कारण दुःख होना । जैसे – यह कलियुग का काल है, इस काल में अमुक-अमुक समय में, अमुक-अमुक वस्तु से, अमुक-अमुक स्थान में व्यक्ति दुःख पाता है । दूषित काल है, प्रदोषकाल है तो उस काल में व्यक्ति पीड़ा पाता है, दुःख पाता है । शराब का अड्डा है, वेश्यागृह है, झगड़ा करने वाले लोगों का संग है तो उस स्थान के कारण किसी को दुःख होता है । वस्तु से भी व्यक्ति दुःख पाता है । जैसे – शराब है, कबाब है और दूसरे हानि पहुँचाने वाले व्यसन आदि । फास्टफूड खा लिया तो आगे चलके बीमारी होगी । खूब नाचे फिर खड़े-खड़े ठंडा पानी पिया तो आगे चलकर पैरों की पिण्डलियाँ दर्द करेंगी । यह काल का दुःख है कि अभी तो कर लिया लेकिन समय पाकर दुःख होगा । अभी तो निन्दा कर ली, सुन ली लेकिन समय पाकर अशांति होगी, दुःख होगा, नरकों में पड़ेंगे, आपस में लड़ेंगे, उपद्रव होगा ।

तीसरा होता है अज्ञानजन्य दुःख । अज्ञान क्या है ? हम जो हैं उसको हम नहीं जानते और हम जो नहीं हैं उसको हम मैं मानते हैं तो

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।

‘अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं ।’ (गीताः 5.15)

कितने बचपन आये, कितनी बार मृत्यु आयी, कितने जन्म आये और गये फिर भी हम हैं…. तो हम नित्य हैं, चैतन्य हैं, शाश्वत हैं, अमर हैं । इस बात को न जानना यह अज्ञान है । इससे उलटा ज्ञान हो गया इसलिए हम जिस शरीर में आये उसी के कर्म और व्यवहार को सच्चा मानने लगे ।

तो कंस से, काल से और अज्ञान से छुटकारा – यह है श्रीकृष्ण-अवतार का उद्देश्य । श्रीकृष्ण कंस को तो मारते हैं, काल से अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और ज्ञान से अज्ञान हरके भक्तों को ब्रह्मज्ञान देते हैं । यह श्रीकृष्ण-अवतार है ।

श्रीकृष्ण-अवतार मतलब तुम्हारे हृदय में भगवदावतार कैसे हो ? यह जन्माष्टमी का पर्व सत्संग के द्वारा तुम्हारे हृदय में श्रीकृष्ण अवतार कराना चाहता है, तुम्हारा कितना सौभाग्य है ! श्रीकृष्ण नाम का अर्थ क्या है ? कर्षति आकर्षति इति कृष्णः । जो कर्षित कर दे, आकर्षित कर दे, आनंदित कर दे उसको कृष्ण बोलते हैं । आप सुख और आनंद से कर्षित होते हैं और जहाँ-जहाँ, जिस-जिस में सुख होता है, उस-उस अवस्था से आप आकर्षित होते हैं और उस-उस परिस्थिति से आप आनंदित होते हैं । श्रीकृष्ण का यह बाह्य अवतार कर्षित-आकर्षित, आनंदित करने वाला है और श्रीकृष्ण का वास्तविक स्वरूप सत्संग से समझ में आता है । श्रीकृष्ण बंसी बजाते हैं तो सब कर्षित-आकर्षित होते हैं और फिर कुछ लीला करते हैं तो आनंदित होते हैं । ऐसा हो-होके बदल जाता है लेकिन श्रीकृष्ण का तात्त्विक अवतार अर्जुन के अंतःकरण में हुआ तो अर्जुन सदा के लिए पार हो गये । जिस-जिस गोपी के अंतःकरण में श्रीकृष्ण का तात्त्विक अवतरण हुआ, वे सब सदा के लिए पार हो गयीं ।

तो हम कंस में फँसे हैं, काल से फँसे हैं, अज्ञान से फँसे हैं और इनको निवृत्त करने के लिए श्रीकृष्ण अवतार चाहिए ।

‘पातंजल योगदर्शन’ के ‘व्यासभाष्य’ में व्यास जी ने लिखा हैः

नानुपहत्य भूतानि उपभोगः सम्भवतीति ।

‘प्राणियों को हानि पहुँचाये बिना उपभोग कभी संभव नहीं हो सकता ।’ (यो.द.सा.प. – 15)

‘दूसरों का जो होने वाला हो, हो लेकिन मेरे को भोग मिले, यश मिले, पद मिले, सब कुछ मैं-ही-मैं हो जाऊँ’ – इसी वृत्ति का नाम है कंस । यहाँ तक कि ग्वाल-गोपियाँ अपने बच्चों को मक्खन नहीं दे सकते थे, कंस का इतना आतंक था । अपने भोग के लिए, अपनी सत्ता के लिए, अपनी अहंता के लिए कुछ भी करने को तैयार – वह है कंस और सभी के मंगल के लिए, माधुर्य जगाने के लिए चाहे कुछ भी करना पड़े, उसके लिए जो हमेशा तैयार है – उसका नाम है कृष्ण । ‘बहुजनहिताय-बहुजन सुखाय’ व्यापक जनसमाज के विकास के लिए चाहे नंद बाबा का बेटा बनना पड़े, चाहे वसुदेव का बेटा बनना पड़े, चाहे दशरथनंदन बनना पड़े, चाहे किसी संतरूप में किसी माई का और बाबा का बेटा कहलाना पड़े, चाहे निंदा हो, चाहे आरोप लगें फिर भी लोक-मांगल्य करता है – यह संत अवतरण है ।

तो अब क्या करना है ? अपना उद्देश्य बना लें कि हमारे अंतःकरण में श्रीकृष्ण अवतार हो, भगवदावतार हो, भगवद्ज्ञान का प्रकाश हो, भगवत्सुख का प्रकाश हो तो भगवदाकार वृत्ति पैदा होगी । जैसे घटाकार वृत्ति से घट दिखता है, ऐसे ही भगवदाकार वृत्ति बनेगी, ब्रह्माकार वृत्ति बनेगी तब ब्रह्म-परमात्मा का साक्षात्कार होगा । तो भगवद्ज्ञान, भगवत्प्रेम और भगवद्विश्रांति सारे दुःखों को सदा के लिए उखाड़ के रख देगी । इसलिए ब्रह्मज्ञान का सत्संग सुनना चाहिए, उसका निदिध्यासन करके विश्रांति पानी चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 200

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