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Tatva Gyan

चंचल मन से कैसे पायें अचल पद ? – पूज्य बापू जी


संसार का रस टिकता नहीं और मनुष्य की नीरसता मिटती नहीं, खुद मिटकर मर जाता है, बोलो! अब क्या करें? तो जहाँ सच्चा, शाश्वत रस है वहाँ मन को लगाना चाहिए। लेकिन मन चंचल है। तो केवल मन चंचल है? पृथ्वी भी चंचल है, घूमती रहती है, १ मिनट में करीब २८ किलोमीटर घूमती है। सूरज भी चंचल है, घूमता रहता है। चाँद भी चंचल है, वायु भी चंचल है, बुद्धि भी परिवर्तनशील है, श्रीराम भी चंचल हैं, श्रीकृष्ण भी चंचल हैं – ठुमक-ठुमक नाचते हैं। कौन चंचल नहीं है? तो मन चंचल है, मन चंचल है… कह के काहे को परेशान होते हो! जब इतने सारे चंचल हैं तो मन भी चंचल है। लेकिन यह अकेला चंचल नहीं है, प्रमाथी भी है, मथ डालता है। किसी बहू-बेटी को बुरी दृष्टि से देखा तो शरीर में ऐसा मथ देता है कि करा-कराया, खाया-खवाया सब नाली से बाहर – स्वप्नदोष कर देवे रात को बुरी नीयतवाले का। फिल्म की अभिनेत्री तो अभी क्या पता जिंदी है कि मर गयी लेकिन उसका नाच-गान और हँसी देखकर कई लोग विकारी वासनाओं – कल्पनाओं में अपने स्वास्थ्य की तबाही कर लेते हैं। ऐसा मथ देता है मन!

तो क्या करें? अरे! फिक्र न करो बेटे! मन चंचल है और मथ देता है लेकिन इन दोनों को सत्ता देने वाला तुम्हारा चैतन्य आत्मा तुम हो। मन की वासना को बुद्धि समर्थन न दे और शरीर साथ न दे तो वासना आकर चली जायेगी।

चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय।

दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय।।

चक्की चले तो चालन दे तू काहे को रोय।

लगा रहे जो कील से तो बाल न बाँका होय।।

तू कीलस्वरूप अपने आत्मदेव की स्मृति में लगा रह तो बाल भी बाँका नहीं होगा लेकिन अभ्यास की जरूरत है। करोड़ों वर्ष का मन की गुलामी का अभ्यास है इसिलिए उस हलके अभ्यास को मिटाने के लिए ध्यान का, जप का, सेवा का अभ्यास और भगवान को अपना मानकर भगवत्प्रेम करने का अभ्यास बढ़ा दे, मौज हो जायेगी!

‘मंन चंचल है, चंचल है….’ फरियाद मत करो भैया ! जल भी चंचल है, सूर्य की किरणें भी चंचल हैं और अग्नि की लपटें भी तो चंचल हैं ! बिजली तारों में भागती जा रही है… वह भी तो चंचल है, कहाँ ठहरती है ? माया भी चंचल है और माया का ओढ़ना लेकर भगवान साकार हो के आते हैं तो वे भी चंचलता की लीला करते हैं । तो तेरा मन चंचल है इसकी तू फरियाद मत कर । मन केवल चंचल और प्रमाथी ही नहीं है, वह तुम्हारा मित्र भी है और शत्रु भी है । अगर इसकी चंचलता और प्रमाथीपने में मिलते गये तो तुम्हारा शत्रु है, तुम्हें तबाह करके छोड़ेगा लेकिन तुमने शरीर से सहयोग नहीं दिया और बुद्धि से समर्थन नहीं दिया तो यह मन तुम्हारा हितैषी भी हो जायेगा । मन जैसा मित्र नहीं, ईश्वर से मिलाने वाला भी तो मन है !

मन में एक बड़ा सदगुण है, इसको एक बार जिसका चस्का आ जाता है उधर ही चल पड़ता है । शराबी शराब के चस्के में तो जुआरी जुए के चस्के में तबाह हो जाता है । प्रेमी-प्रेमिका प्रेम विवाह के चस्के में खत्म हो जाते हैं । किंतु मन को भगवान पाने का चस्का लगा तो वह भगवान से मिला देगा, ऐसा मित्र भी तो है न ! भगवत्प्राप्त महापुरुषों का संग बड़ी मदद करता है । भगवन्नाम-सुमिरन, भगवद् कथा व वार्ता, कीर्तन, उत्सव – यह सब मन की मित्रतावाला रास्ता है औऱ विकारों से सुख खोजना यह मन से शत्रुता करने वाला रास्ता है ।

भगवान कहते हैं-

आत्मैव ह्यत्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।

अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।।

‘(सद्गुरु और शास्त्र के अनुसार चलने पर) आत्मा (मन) ही आत्मा (जीव) का बंधु है और (अशुभ कार्य करने पर) आत्मा (मन) ही आत्मा (जीव) का शत्रु है । जिसने आत्मा को  (विवेकयुक्त मन) से आत्मा (देह और इन्द्रियों को जीत लिया है वह आत्मा (मन), आत्मा (जीव) का बंधु है और देह-इन्द्रियादि अनात्म पदार्थों में प्रेम हो जाने पर उनके अनुसार चलने वाला आत्मा (मन) शत्रु के समान शत्रुभाव में बरतता है ।’ (गीता – 6.5-6)

जो अनात्म चीजें हैं – विषय-विकार, भोग, उनमें अगर मन को जाने दिया सुख खोजने के लिए तो यह आपको शत्रुता का काम देगा और उधर से घुमा-घुमा के ईश्वर में, भगवत्प्रीति में, ध्यान, सत्संग, सत्कर्म, सेवा में लगाया तो तो आपको ईश्वर से मिला देगा । सत्कर्म, सेवा से औदार्य सुख मिलता है । दूसरे को सुख देने से अपने सुख की वासना मिटती है और अंदर से अपना औदार्य सुख प्रकट होता है ।

मन चंचल है, बुद्धि परिवर्तनशील है, शरीर चंचल है, शरीर में रक्त घूम रहा है वह भी चंचल है, काम चंचल है, क्रोध चंचल है, लोभ-मोह ये सब चंचल, चंचल करने वाले हैं फिर भी इन चंचलताओं के बीच भी एक अचल है । सब चंचल-ही-चंचल हैं फिर भी एक खुशी की बात है कि इनकी चंचलता देखने वाला अचल है…. वह मेरा, मैं उसका ! कितना शुभ समाचार है, कितनी ऊँची बात है !

जरा विचार करें, ‘काम आया, हम कामी हो गये, काम चला गया, हम वही रह गये । लोभ आया, चंचल हुए, लोभ चला गया, हम अचल हो गये । इन चंचलों में भी अचल है न हमारा स्वामी ! हम उसी के बालक हैं । महाराज ! हम तेरे हैं । तू अचल है तो हम तेरे बच्चे हैं, जैसा बाप वैसा बेटा, जैसे गुरु वैसा चेला, संसार चलाचली का मेला । लेकिन तू अचल है और मैं तेरा बालक भी अचल हूँ, मैंने भी शरीर की अवस्थाएँ जानीं । तूने सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय देखा  तो मैंने शरीर का बाल्यकाल, जवानी, बुढ़ापा सब देखा । मैं तेरा और तू मेरा प्यारे !…. मेरे इष्टदेव !’ युक्ति से मुक्ति होती है । ईश्वर को पाने का इरादा कर लो फिर संतों की युक्तियों से आप संसार के दुःखों से तर जाओगे । बाकी डॉलर मिलने से दुःख मिटता है यह बेवकूफी की बात हम नहीं मानते धन मिलने से दुःख नहीं मिटता है, यदि मिटता तो धनवाले निर्दुःख होने चाहिए । घर मिलने से, पत्नी मिलने से भी दुःख नहीं मिटता है, बोलो ! प्रेमिका मिलने से भी दुःख नहीं मिटता है बल्कि और ज्यादा दुःखी होता है । प्रेमी मिलने से भी दुःख नहीं मिटता है बल्कि और ज्यादा दुःखी होती है । जो कभी बिछड़े नहीं उसका सत्संग, उसकी प्रीति, उसका ज्ञान और उसमें विश्रांति सारे दुःख मिटाकर परमात्मा को प्रकट कर देने वाले हैं ।

भगवान कहते हैं-

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ।। (गीताः 9,33)

ये अनित्य हैं चंचल सब, असुखरूप हैं, इन्हें पाकर तू मेरा भजन कर और मुझे पा ले । मैं अचल हूँ ।

तो भजन कर मतलब भगवद्-रस ले । किं लक्षणं भजनम् ? रसनं लक्षणं भजनम् । भगवद्-चिंतन, भगवद्-ज्ञान का रस लेते-लेते उस ‘रसो वै सः’ में टिक जा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 4-6, अंक 335

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मंगल, सर्वमंगल, सर्वसुमंगल-पूज्य बापू जी


मंगल उसे कहते हैं जो सुख, शांति, आनंद है लेकिन वह मंगल भी तीन प्रकार का होता है।

पहलाः पत्नी, पति अनुकूल है, काम धंधा ठीक है, घर में वैमनस्य नहीं है, मंगलमय जिंदगी है इसको सामान्य मंगल बोलते हैं।

दूसराः इससे बड़ा मंगल सबका मंगल और होता है जिसको सर्वमंगल कहते हैं। सबकी भलाई में अपनी भलाई, सबकी शांति में, सुख में अपना सुख। परस्पर सद्भाव, एक-दूसरे की भावनाओं को भगवान में लगाना और भक्तिरस में मददगार होना, सेवा में मददगार होना। एक-दूसरे की टाँग खींचने की दुष्ट वृत्ति से उपराम होना। यह सर्वमंगल है। सेवा के लिए मंगलभावना और मंगलमय भगवान के नाते काम करना यह सर्वमंगल है।

तीसरा मंगल होता है सर्वसुमंगल।

सर्वसुमंगल सुखस्वरूप परमात्मा में विश्रांति पाना। यह अपना और वातावरण में सुमंगल करेगा। पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों को भी भगवान में शांत हुए व्यक्ति के आंदोलन से मदद मिलती है यह सर्वसुमंगल है। वे महापुरुष हयात होते हैं तो उनकी दृष्टि से सर्वसुमंगल, उनके वचनों से सर्वसुमंगल होता है। वे जहाँ रहते हैं उस भूमि से भी सर्वसुमंगल होता है।

जो सर्वसुमंगल में रत हैं ऐसे महापुरुषों का सम्पर्क, सर्वसुमंगलमय परमात्मा में विश्रांति, सर्वसुमंगलमय परमात्मा का नाम और ‘सब वासुदेव है’ ऐसी ‘सर्वसुमंगलमय’ की ज्ञानदृष्टि.… इससे अमंगल भी गहराई में मंगल ले आता है। ऐसी सूझबूझ सर्वसुमंगलमय में टिके हुए महापुरूषों को प्राप्त हो जाती है। उनके लोक-मांगल्य के दैवी कार्य में बुद्ध, अबुद्ध, विबुद्ध – सर्व का साथ सहकार हो जाता है सब भागीदार हो जाते हैं। सब प्रभु के प्रेमी हो जाते हैं, प्रभु में विश्रांति पाते हैं। अभिमान नहीं टिकता है, आत्मज्ञान टिकता है। मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं यह ‘स्व’ मान टिकता है, अभिमान नहीं। नम्रता आती है, सहजता आती है। द्रव्यबल, जनबल, बुद्धिबल, शरीरबल – यह सच्चा नहीं है लेकिन भगवत्प्रेमबल, सर्वसुमंगलमय परमात्मा-बल सच्चा है। उसके आगे विषैले प्राणी भी अपना क्रूर स्वभाव भूल जाते हैं। सर्प विषैले प्यार से वश में बाबा तेरे आगे… यह सर्वसुमंगल की पहचान है। ऐसे सर्वसुमंगल के प्रति प्रेम, सेवा, स्नेह, समर्पण सहज में ही हो जाता है।

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ब्रम्ह श्राप से ग्रसित उधो को श्रीकृष्ण वह दे रहे हैं जो देहातीत है…पढ़िये…


गुरु के चरणकमलों में आत्मसमर्पण करना यह शिष्य का आदर्श होना चाहिए। गुरु महान है। विपत्तियों से डरना नहीं। हे वीर शिष्यों! आगे बढ़ो!गुरुकृपा अणुशक्ति से अधिक शक्तिशाली है। शिष्य के ऊपर जो आपत्तियां आती हैं वे छुपे वेश में गुरु के आशीर्वाद के समान होती है। गुरु के चरणकमलों में आत्मसमर्पण करना, यह सच्चे शिष्य का जीवनमंत्र होना चाहिए।

संत एकनाथ जी महाराज सद्गुरु स्तुति करते हुए लिखते हैं कि, हे सद्गुरु परब्रह्म! तुम्हारी जय हो! ब्रह्म को ब्रह्म यह नाम तुम्हारे ही कारण प्राप्त हुआ है। हे देवश्रेष्ठ गुरुराया! सारे देवता तुम्हारे चरणों में प्रणाम करते हैं। हे सद्गुरु सुखनिधान! तुम्हारी जय हो! सुख को सुखपना भी तुम्हारे ही कारण मिला है। तुमसे ही आनंद को निजानंद प्राप्त होता है और बोध को निजबोध का लाभ होता है। तुम्हारे ही कारण ब्रह्म को ब्रह्मत्व प्राप्त होता है। तुम्हारे जैसे समर्थ एक तुमही हो! ऐसे श्रीगुरु आप अनंत हो। आप कृपालु होकर अपने भक्तों को निजात्म स्वरूप का ज्ञान प्रदान कराते हो। अपने निजस्वरूप का बोध कराकर देव भक्त का भाव नहीं रहने देते हो। जिस प्रकार गंगा समुद्र में मिलनेपर भी उसपर चमकती रहती है, उसी प्रकार भक्त तुम्हारे साथ मिल जानेपर भी तुम्हारे ही कारण तुम्हारा भजन करते हैं। अद्वैत भाव से तुम्हारी भक्ति करने से तुम्हें परम संतोष होता है और प्रसन्न होनेपर आप शिष्य के हाथों में आत्मसंपत्ति अर्पण करते हो।

हे गुरुराया! शिष्य को निजात्म स्वरूप दान में गुरुत्व देकर आप उसे महान बनाते हो। यह आपका अतिशय विलक्षण चमत्कार है, जो वेद-शास्त्रों की समझ में नहीं आता। जिसके लिये वेद रात और दिन वार्ता कर रहे हैं, वह आत्मज्ञान आप सतशिष्य को एक क्षण में कर देते हो। करोड़ो वेद एवं वेदांत का पठन करने पर भी आपके आत्मोपदेश की शैली किसीको भी नहीं आ सकती। अदृष्ट वस्तु ध्यान में आना संभव नहीं है। आपकी कृपायुक्ति का लाभ होनेपर ही दुर्गम सरल होता है। हे गुरुराया! जिसप्रकार माँ दही को मथकर उसका मक्खन निकालके बालक को देती है। उसी प्रकार आपने यह किया है।

भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश सुनकर उधोजी ज्ञानसंपन्न हो गये। इससे अत्याधिक ज्ञातृत्व हो जाने के कारण ज्ञान अभिमान होने की संभावना हुई। सारा संसार मूर्ख है और एक मैं ज्ञाता हूं ऐसा जो अहंकार बढ़ता रहता है, वही गुण-दोषों की सर्वदा और सर्वत्र चर्चा कराता है। जहाँ गुण-दोष का दर्शन होता है वहाँ सत्य-ज्ञान का लोप हो जाता है।

साधकों के लिए इतना ज्ञान-अभिमान बाधक है। ईश्वर भी यदि गुण-दोष देखने लगे तो उनको भी बाधा आएगी। इसप्रकार गुण-दोषों का दर्शन साधक के लिए पूरी तरह घातक है। इसलिए प्रश्न किये बिना ही श्रीकृष्ण उद्धव को उसका उपाय बताते हैं। जिसप्रकार बालक को उसका हित समझ में नहीं आता। अतः उसकी मां ही निष्ठापूर्वक उसका ख्याल रखती है। उसी प्रकार उधो के सच्चे हित की चिंता श्रीकृष्ण को थी।

उद्धव का जन्म यादव वंश में हुआ था और यादव तो ब्रह्मशाप से मरनेवाले थे। उनमें से उद्धव को बचाने के लिए श्रीकृष्ण उसे संपूर्ण ब्रह्मज्ञान बता रहे हैं। जहां देहातीत ब्रह्मज्ञान रहता है, वहां शाप का बंधन बाधक नहीं होता। यह जानकर ही श्रीकृष्ण ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने लगे।

श्रीकृष्ण कहते हैं, हे उद्धव! संसार में मुख्यरूप से तीन गुण है। उन गुणों के कारण लोग भी तीन प्रकार हो गये हैं। उनके शांत, दारुण और मिश्र ऐसे स्वभाविक कर्म हैं। उन कर्मों की निंदा या स्तुति हमें कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि एक के भलेपन का वर्णन करने से उन्हीं शब्दों से दूसरों को बुरा बोलने जैसा हो जाता है। संसार परिपूर्ण ब्रह्मस्वरूप है, इसलिए निंदा या स्तुति किसी भी प्राणी की कभी भी नहीं करनी चाहिए।

हे उधो! सभी प्राणियों में आत्माराम है, इसलिए प्राण जानेपर भी निंदा या स्तुति नहीं करे। हे उधो! निंदा-स्तुति की बात सदा के लिए त्याग दो। तभी तुम्हें परमार्थ साध्य होगा और निजबोध से निजस्वार्थ प्राप्त होगा। हे उधो! समस्त प्राणियों में भगवद्भाव रखना। यही ब्रह्मस्वरूप होने का एक मार्ग है। इसमें कभी भी धोखा नहीं है। जहां से अपाय अर्थात खतरे की संभावना हो। यदि वही भगवदभावना दृढ़ता से बढ़ाई जाय तो जो अपाय है, वहीं अपाय हो जायेंगे। इस स्थिति को दूर छोड़ जो मैं ज्ञाता हूं, ऐसा अहंकार करेगा और निंदा-स्तुति का आश्रय लेगा वह साधक अनर्थ में पड़ेगा।