संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वेधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।
‘जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिनके सब संशय ज्ञान के द्वारा निवृत्त हो गये हैं, जो संपूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। (गीताः 5.25)
संसार स्वप्न जैसा है। जन्म से लेकर जीवनभर मजदूरी करो लेकिन कुछ हाथ नहीं लगता है, जैसे भूसी को छडने से कुछ हाथ नहीं लगता है। संसार की बातें करना भूसी छड़ना है। माया से पार होने की बातें करना धान छड़ना है और ब्रह्म-परमात्मा की बातें करना चावल छड़ना है। जो ब्रह्म-परमात्मा को पाये हुए हैं उनके लिए संसार एक खेलमात्र है।
तुलसी पूर्व के पाप से हरिचर्चा न सुहाय।
जैसे ज्वर के जोर से भूख विदा हो जाय।।
जिनके पाप जोर करते हैं उनको हरि चर्चा, ब्रह्म परमात्मा की चर्चा नहीं सुहाती है, उनके मन में तो माया के (भूसी छड़ने के) विचार घूमते हैं। जिनके सब पाप निवृत्त हो गये हैं वे माया में रहते हुए भी माया के विचारों से लेपायमान नहीं होते हैं। ज्ञान के द्वारा जिनके सब संशय निवृत्त हो गये हैं ऐसे पुण्यात्मा को अपने स्वरूप के विषय में कोई संशय नहीं रहता है।
जगत सत्य है या मिथ्या ? आत्मा सत्य है कि परमात्मा सत्य है ? आत्मा और परमात्मा भिन्न हैं कि अभिन्न हैं ? जीते जी मुक्ति मिलती है कि मरने के बाद मिलती है ? जीव ब्रह्म में भिन्नता है कि अभिन्नता ? इस विषय में उनके संशय ज्ञान द्वारा निवृत्त हो जाते हैं। मैं जन्मने मरने वाला तुच्छ जीव नहीं हूँ किन्तु सर्वव्यापक ब्रह्म हूँ… मैं व्यक्ति विशेष परिच्छिन्न नहीं हूँ किन्तु अखण्ड ब्रह्माण्ड में व्यापक परब्रह्म हूँ…. इसमें उनको कोई संदेह नहीं होता है क्योंकि उन्होंने अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान पा लिया है।
जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत रहते हैं, वे ज्ञानी महापुरुष हैं। हर प्राणी का अपना-अपना प्रारब्ध होता है, अपना-अपना स्वभाव होता है, अपनी-अपनी पकड़ होती है और अपनी-अपनी मान्यता होती है। ज्ञानी महापुरुष सबमें स्थित परमात्मा में विश्रांति पाते हैं। अतः अपने स्वरूप में विश्रांति पाये हुए ऐसे महात्मा को देखकर सब प्रसन्न होते हैं और उनको स्नेह करते हैं। पशु पक्षियों पर भी यदि ज्ञानवान की दृष्टि जाती है वे उनमें भी अपनी आत्मा को निहारते हैं। दूसरों में आत्मस्वरूप निहारना यह भी उनका हित करने का बड़ा साधन है। जैसे ‘एक्स रे’ मशीन अपनी जगह पर होते हुए भी हड्डियों तक की फोटो ले लेती है वैसे ही ज्ञानी महापुरुषों की ब्रह्मभावपूर्ण निगाहें हम पर पड़ती हैं तो हमारे लिए भी अपने स्वरूप तक पहुँचने का मार्ग सरल हो जाता है।
शास्त्र में तो यहाँ तक कहा गया है कि लकड़ी पत्थर इत्यादि जड़ वस्तुओं को यदि ज्ञानी छूते हैं यह उन पर उनकी दृष्टि पड़ती है, स्पर्श मिलता है तो देर-सवेर उनका भी उद्धार हो जाता है तो चेतन जीवों का कल्याण हो जाये इसमें क्या आश्चर्य है ? इसीलिए ज्ञानी ‘सर्वभूतहिते रताः’ कहे गये हैं।
‘सर्वभूतहिते रताः का अर्थ यह नहीं है कि सब प्राणी अपना जैसा हित चाहते हैं वैसा हित। बच्चा अपनी बुद्धि के अनुसार अपना हित चाहता है, कामी अपनी बुद्धि के अनुसार अपना हित चाहता है, लोभी अपनी बुद्धि के अनुसार अपना हित चाहता है, अहंकारी अपनी बुद्धि के अनुसार अपना हित चाहता है। वास्तव में उनका उसमें हित नहीं है लेकिन ज्ञानी उनमें ब्रह्मदृष्टि की निगाह डालते हैं और उसी में सबका हित निहित है। इसी दृष्टि से कहा गया है कि ज्ञानी महापुरुष सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत रहते हैं।
आत्मज्ञान के पश्चात ज्ञानी महापुरुष का शेष जीवन लोगों को आत्मज्ञान पाने के प्रति जागृत करने में बीतता है। यह आत्म-जागृति का कार्य भी उनका स्वनिर्मित विनोद है। जो विनोदमय कार्य होता है उसमें थकान नहीं लगती है और उसमें कर्तापन का भाव भी नहीं होता है। जो थोपा जाता है वह थकान लाता है और जो किया जाता है वह कर्तापन लाता है लेकिन जो विनोद से होता है उसमें न कर्तापन होता है न थकान।
विनोदमात्र व्यवहार जेना ब्रह्मनिष्ठ प्रमाण।
ऐसे महापुरुषों का प्रत्येक व्यवहार विनोदमात्र होता है। उनका राज्य करना भी विनोदमात्र और भिक्षा माँगना भी विनोदमात्र…. उनका युद्ध करना भी विनोदमात्र और ‘रणछोड़राय’ कहलाकर भाग जाना भी विनोदमात्र। उनके लिए तो सब विनोदमात्र है लेकिन सामने वाले का जीवन बदल जाता है। सूर्य के लिए प्रकाश देना तो स्वाभाविक है लेकिन सारी वसुन्धरा के लिए जीवनदान हो जाता है। ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषों की तो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है लेकिन हम लोगों के हृदय में आनंद और उल्लास छा जाता है, हमारे जीवन में ताजगी और स्फूर्ति छा जाती है, सदप्रेरणा, सदप्रवृत्ति सत्स्वरूप परमात्म-प्रीति जागृत हो जाती है। हमारे जीवन में एक नई रोशनी छा जाती है, समझ आ जाती है। वे ही बताते हैं-
ऐ तालबेमंजिले तू मंजिल किधर देखता है ?
दिल ही तेरी मंजिल है, तू अपने दिल की ओर देख।
ऐ सुख के तलबगार ! ऐ सुख को ढूँढने वाले !
तू सुख को कहाँ खोजता है ?
सुखस्वरूप तेरा अपना-आपा है, उसी में तू देख।
लुत्फ कुछ भी नहीं जहाँ में, लेकिन दुनिया जान दे देती है।
बंदे को अगर खुद की खुदाई का पता होता, न जाने क्या कर देता ?
तू सुख को कहाँ खोजता है ?
अपना आनंद, अपनी खुशी, अपना ज्ञान, अपना आत्मिक खजाना अगर समझ में आ जाये तो बंदा कितना धन्य धन्य हो जाये !
यह ब्रह्मविद्या अदभुतत चमत्कार करती है। शरीर का ढाँचा वही का वही, नाम वही का वही, लेकिन गुरुदेव थोड़ी समझ बदल देते हैं तो दुनिया कुछ और ही निगाहों से दिखने लगती है। यह ब्रह्मविद्या ही है, जिससे सब शोक, चिंताएँ, क्लेश, दुःख नष्ट हो जाते हैं।
छिन्नद्वेधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।
ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की दृष्टि जहाँ तक पड़ती है एवं जहाँ तक उनकी वाणी जाती है वहाँ तक के जीवों को तो शांति मिलती ही है लेकिन जब वे मौन होते हैं, एकांत में होते हैं तो ब्रह्मलोक तक के जीवों को मदद मिलती है और उन्हें पता भी नहीं होता है कि मैंने किस-किस को मदद की है। जैसे सूर्य नारायण सदा अपनी महिमा में स्थित रहते हैं। उनके प्रकाश से कितने जीवों ने जीवन पाया-क्या वे इसकी गिनती रखते होंगे ? नहीं। सूर्यदेव अपनी जगह पर स्थित होते हुए भी, ब्रह्माकार वृत्ति से ब्रह्माण्डों को छूते हुए भी सबसे अलिप्त रहते हैं। सचमुच में बढ़िया से बढ़िया काम, बढ़िया से बढ़िया सेवा तो ब्रह्मवेत्ता ही कर सकते हैं। उनकी सेवा के आगे हमारी सेवा की तो कोई कीमत ही नहीं है। ऐसे ही आत्मसाक्षात्कारी पुरुष ‘सर्वभूतहिते रताः हैं।
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं…. जिनका जीता हुआ मन निश्चल भाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
मन को जीतने के हजार-हजार उपाय किये जायें लेकिन जब तक मन को भीतर का रस ठीक से नहीं मिलता तब तक वह ठीक से जीता नहीं जा सकता। तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा।
‘निज का सुख, अपने आत्मस्वरूप का सुख जब तक नहीं मिला तब तक मन स्थिर नहीं होता है।’
व्रत-उपवास करने से, एकांत जगह में रहने से कुछ समय के लिए मन शांत हो जाता है लेकिन फिर से बहिर्मुख हो जाता है। जैसे ठण्ड के दिनों में प्रभातकाल की ठण्डी से साँप ठिठुर जाता है एवं चुपचाप पड़ा रहता है लेकिन ज्यों ही सूर्य की किरणें मिलीं कि वह अपनी चाल चलने लगता है। ऐसे ही व्रत-उपवास, एकांतसेवन करने से थोड़ी देर के लिए तो मन स्थिर होता है लेकिन ज्यों ही भोग-सामग्री सामने आती है त्यों ही मन उसमें आसक्त हो जाता है क्योंकि उसे भीतर का रस नहीं मिला है। जिन्होंने भीतर के रस को पा लिया है उनका मन तो शांत होता ही है, साथ ही ऐसे महापुरुषों के सम्पर्क में आने वालों का मन भी शांत होने लगता है।
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः….
जिनके कल्मष दूर हो गये हैं, पाप दूर हो गये हैं वे ऋषि ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होते हैं।
बड़े में बड़ा पा है जगत के भोगों को सच्चा मानकर जगदीश्वर को भूलना। जो जगत को सत्य मानकर व्यवहार करता है वह चौरासी के चक्कर में ही घूमता रहता है लेकिन जो जगत को मिथ्या मानकर जगदीश्वर में मन लगाता है, संयम सदाचार को अपनाता है वह देर-सवेर जगदीश्वर तत्त्व का अनुभव पाने में भी सफल हो जाता है।
इसीलिए भगवान कहते हैं-
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2001, पृष्ठ संख्या 2-4, अंक 101
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