पूज्य बापू जी की अमृतवाणी
शरणानंद जी महाराज हो गये। सूरदास थे लेकिन अँदर की आँखें पूरी खुलीं थीं। दस साल की उम्र में उनकी आँखें चली गयीं, उदास रहे। संतों के सम्पर्क में आये, उदासी और दुःख मिटा लेकिन दुःखहारी की चर्चा सुनते-सुनते इतने उच्च कोटि के महापुरुष बन गये कि आँखें नहीं थीं फिर भी पढ़े हुए लोग अखण्डानंद जी, आनंदमयी माँ, गाँधी जी जैसे, पंडित दीनदयाल, मदन मोहन मालवीय जी, नेहरू जी और भी कुछ राजेन्द्र बाबू जैसे उनके सत्संग का आस्वादन करके धन्यता का एहसास करते थे। शरणानंद महाराज की भगवान में ऐसी प्रीति थी कि उनकी भगवत् व्याख्या, भगवत्कृपा और भगवद्-अनुभूति की बातें बिल्कुल शास्त्रसम्मत आती हैं।
उनका ईश्वर में बड़ा विश्वास था। विश्वासः फलदायकः। वे बताते थे कि एक बार वे हरिद्वार से यमुनोत्री जा रहे थे। यमुना किनारे यात्रा करते-करते बीमार पड़ गये। वैसे तो लोग थे उनके साथ लेकिन भक्त लोग थे, हिमालय की यात्रा थी, पैदल का जमाना था। कुछ यात्री रुके, कोई एक दिन, कोई दो दिन, कोई तीन दिन…. आखिर कोई कब तक देखता है ! सब चले गये, शरणानंद महाराज अकेले रह गये। स्वस्थ हुए तो फिर चलते गये-चलते गये तो क्या हुआ कि कहीं से कोई ढेर गिर पड़ा यमुना जी में धप्पऽऽ ! इन्हें धक्का लगा और ये खुद भी यमुना में जा गिरे। तैरना तो जानते थे पर यमुना माँ के बहाव में बहे जा रहे थे। हाथ से लकड़ी छूट गयी। अब किधर को जायें, आँखें तो थीं नहीं ! किंतु हृदय में ईश्वर का, उसकी सत्ता-सामर्थ्य का विश्वास था।
‘अब तेरी मर्जी पूर्ण हो।’ – इतना कहा कि दूसरे क्षण में रेतीला स्थान मिल गया, उसके सहारे खड़े हो गये। आँखों तो थी नहीं फिर भी लकड़ी हाथ में आ गयी !
‘तू कैसा है, कैसी तेरी सत्ता है ! कितना तू ख्याल करता है !….’
भगवान की कृपा-करुणा से, अहोभाव से हृदय पावन हो गया, भर गया।
गुलाब में उसी की चेतना है। कैसा रंग… कैसा बीज…. कैसी सुगंध! मोगरे-मोतिये की अपनी सुगंध है, तुलसी के अपने गुण-धर्म हैं। हैं तो एक लेकिन जहाँ-जहाँ जाता है, जैसा-जैसा निमित्त है, वैसा-वैसा उसमें कैसा खेल करता है ! वाह प्रभु !
परमात्मा का चिंतन करके हृदय सुख से, सद्बुद्धि से, सद्भाव से इतना भर जाता है कि दुनिया के टॉनिक तुच्छ हो जाते हैं।
है तो हृदय छोटा सा लेकिन उसके द्वारा कितने-कितने काम करवा देता है ! और हृदय जिस शरीर में रहता है उस शरीर का आरम्भ होता है पानी की बूँद से। पिता की एक चिकनी बूँद से वह शरीर बना और उसमें कैसा-कैसा डला है ! कैसी सत्ता है कि सुनती है, बोलती है, सूँघती है, चखती है ! कैसी सत्ता है कि सोचती है, विचारती है ! पानी की एक बूँद….!
उस नियंता की, सृष्टिकर्ता की, सर्वेश्वर की, परमेश्वर की कैसी महिमा है ! तेरी महिमा तू ही जाने ! हे जग के पालनहार ! मेरे प्यारे ! मेरे इष्टदेव ! मेरे परमेश्वर ! तू कैसा है मैं नहीं जानता पर मैं जैसा-तैसा हूँ तेरा हूँ मेरे प्यारे ! मैं तुझे किस तरह पहचानूँ मुझे समझ में नहीं आता लेकिन तू मुझे किस तरह मिले तेरे से अजान नहीं है। मैं तुझे कैसे खोजूँ, मैं नहीं जानता। मैं तुझे कैसे पाऊँ, मैं नहीं जानता हूँ। लेकिन तू मुझे अपनी प्यास कैसे दे सकता है, यह तू जानता है और प्यास जगा-जगा के, भूख जगा-जगा के फिर तू मिले तो क्या रस आयेगा तू ही जानता है, क्या निर्भरता आयेगी यह तू ही जानता है। हे प्रभु ! हे देव ! हे मेरे प्यारे ! नहीं मिला था तो कितने तड़प रहे थे और मिला तो लगा कि कितने आसान हो, कितने सरल हो हे प्रभु ! हे मेरे देव !
एक महात्मा के पास कोई पके केले ले गया। बाबा ने केला उठाया, छीला तो गिरी दिखी (भीतर का गूदा दिखा)। महात्मा की आँखों से प्रेम के आँसू बरसे…. इतना बढ़िया हलवा, इतनी सारी कैलोरी कैसे कवर (आवरण) में छुपा के रखी और यहाँ तक लाने की उसे प्रेरणा दी ! तू कैसा है प्रभु ! किसने इसमें मिठास भर दी ! यह कबर कैसे बना ! ऐसा सदैव-सदैव सुहावना, कोमल-कोमल केले का हलवा… यह तू कैसे बनाता है !
महात्मा को वह केला नहीं दिखता है ! भगवान का प्रसाद दिख रहा है। महात्मा वह प्रसाद खा रहे हैं। लारी वाले के पास केले थे, भक्त के पास वस्तु थी, महात्मा के पास भगवान की प्रसादी थी। प्रसाद बनकर तू आया और खाने की सत्ता भी तू ही देता है, हे प्रभु ! हे परमेश्वर !
जिसका रसमय, प्रेममय, भावमय हृदय है वह भगवान की लीला, भगवान की सत्ता, भगवान की करुणा, भगवान की प्रेरणा का चिंतन करते-करते भगवन्मय हो जाता है। जिसमें वैराग्य की तीव्रता है, विचार की शक्ति है, वह सोचे, ‘मैं….. मैं…. मैं क्या है ? यह हाथ मैं नहीं हूँ, पैर मैं नहीं हूँ, सिर मैं नहीं हूँ। फिर ‘नेति-नेति’ करते-करते ‘आखिर मैं कौन हूँ’ खोजे। वेदांत शास्त्र का अभ्यास करते हुए ‘मैं कौन हूँ’ इसको खोजता जाय।
शरीर पंचभौतिक है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश – ये पाँच भूत, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ – ये बीस और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार ये सब मिलाकर कुल चौबीस तत्त्व – ये सब प्रकृति के हैं, इनमें सत्ता तेरी। जैसे फूल, फल ये सब चीजें अलग-अलग हैं लेकिन सत्ता उनमें सूर्य की है। सूर्य अपने स्थान पर होते हुए भी सबमें मिला हुआ है। ये चीजें बन-बन के बिगड़ जायें, मिट जायें लेकिन सूर्य वही का वही ! आकाश सबसे मिला है, सबको ठौर देता है। हे आकाश ! तुझे नमस्कार है। तू भी ईश्वरस्वरूप है। जैसे ईश्वर पाँच भूतों को ठौर देता है, ऐसे ही तुमने सबको ठौर दे रखी है। हे जल देवता ! तुझे नमस्कार है। जैसे ईश्वर सम है, रसस्वरूप है ऐसे ही तू रस देता है। हे अग्निदेव ! तुझे नमस्कार है। जैसे ईश्वर-चिंतन करने से मन, बुद्धि रसमय हो जाते हैं, ऐसे ही अग्निदेव ! तुम्हारा उपयोग करने से सारे व्यंजन रसमय बनते हैं। साकार ईश्वर – ये पाँच भूत और निराकार ईश्वर इन चौबीस तत्त्वों से न्यारा, इनको देखने वाला….. इस प्रकार ज्ञानदृष्टि से ईश्वर का श्रवण करें, ईश्वर का चिंतन-मनन करें, अपने ईश्वर के ज्ञान में रहें।
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं।
फिर कोई माप-तौल, कल्पना नहीं।
देख ब्रह्म समान सब माहीं।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2011, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 221
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