भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज का महानिर्वाण दिवसः 22 नवम्बर
शुरु-शुरु में गुरुदेव के दर्शन किये, गुरुजी के चरणों में रहे, उस वक्त गुरुजी के प्रति जो आदर था, वह आदर ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति समझ में आती गयी, त्यों-त्यों बढ़ता गया, निष्ठा बढ़ती गयी। श्रीकृष्ण ʹनरो वा कुंजरो वाʹ करवा रहे हैं लेकिन आप कृष्ण की स्थिति को समझो तो कृष्ण ऐसा नहीं कर रहे हैं। रामजी आसक्त पुरुष की नाईं रो रहे हैं- हाय सीते ! सीते !!…. पार्वती माता को सन्देह हुआ, पार्वती जी रामजी के श्रीविग्रह को देख रही हैं परंतु शिवजी रामजी की स्थिति जानते हैं।
गुरु की स्थिति जितनी-जितनी समझ में आ जायेगी उतनी हमारी अपनी महानता भी विकसित होती जायेगी…. उसका मतलब यह नहीं कि ʹगुरु क्या खाते हैं ? गुरु क्या पीते हैं ? गुरु किससे बात करते हैं ?ʹ बाहर के व्यवहार को देखोगे तो श्रद्धा सतत नहीं टिकेगी। तुम पूजा-पाठ करते हो, ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु पूजा-पाठ भी नहीं करते। जो गुरु को शरीर मानता है या केवल शरीर को गुरु मानता है, वह गुरु की स्थिति नहीं समझ नहीं सकता।
गुरु की स्थिति ज्यों समझेंगे, त्यों गुरु का उपदेश फुरेगा। गुरु का उपदेश, गुरु का अनुभव है, गुरु का हृदय है। गुरु का उपदेश गुरु की स्थिति है।
मैं पहले भगवान शिव, भगवान कृष्ण, काली माता का चित्र रखता था, ध्यान-व्यान करता था लेकिन जब सदगुरु मिले तो क्या पता अंदर से स्वाभाविक आकर्षण उनके प्रति हो गया। साधना के लिए जहाँ मैं सात साल रहा, अभी देखोगे तो मेरे गुरुदेव का ही श्रीचित्र है और मैं ध्यान करते-करते उनकी स्थिति के, उनके निकट आ जाता। वे चाहे शरीर से कितने भी दूर होते परंतु मैं भाव से, मन से उनके निकट जाता तो उनके गुण, उनके भाव और उनकी प्रेरणा ऐसी सुंदर व सुहावनी मिलती कि मैंने तो भाई ! कभी सत्संग किया ही नहीं, मेरे बाप ने भी नहीं किया, दादा ने भी नहीं किया। गुरु ने संदेशा भेजाः “सत्संग करो।ʹ ईन-मीन-तीन पढ़ा, सत्संग क्या करूँ ? किंतु गुरु ने कहा है तो बस, चली गाड़ी… चली गाड़ी तो तुम जान रहे हो, देख रहे हो, दुनिया देख रही है।
गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
मंगल तो तपस्या से हो सकता है। मंगल तो देवी-देवता, भगवान के वरदान से हो सकता है लेकिन परम मंगल भगवान के वरदान से भी नहीं होगा, ध्यान रहे। भगवान को गुरुरूप से मानोगे और भगवद-तत्त्व में स्थिति करोगे, तभी परम मंगल होगा।
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।
ऐसी कौन सी माँ होगी जो बालक का बुरा चाहेगी ? ऐसे कौन-से माँ-बाप होंगे जो बालक-बालिकाओं को दबाये रखना चाहेंगे ? माँ और बाप तो चाहेंगे कि हमारे बच्चे हमसे सवाये हों। ऐसे ही सदगुरु भी चाहेंगे कि मेरा शिष्य सत्शिष्य हो, सवाया हो लेकिन गुरुदेव से स्थिति नहीं होगी तो कभी-कभी लगेगा कि ʹदेखो, मेरा यश देखकर गुरूजी नाराज हो रहे हैं।ʹ
मेरे को डीसा में लोग जब पूजने-मानने लग गये, जय-जयकार करने लगे और गुरु जी को पता लगा तो गुरुजी ने मेरे को डाँटा और उन लोगों को भी डाँटाः “अभी कच्चा है, परिपक्व होने दो उसको।” कुछ लोगों को मेरे गुरुजी के प्रति ऐसा-वैसा भाव आ गया। लेकिन गुरुदेव की कितनी करूणा थी, वह तो हमारा ही हृदय जानता है। उन्हीं की कृपा से हम उनके चरण पकड़ पाये, रह पाये, उसके प्रति आदर रख पाये, नहीं तो ʹइतना अपमान कर दिया, इतने लोग मान रहे हैं और मेरी वाहवाही के लिए गुरु जी को इतना बुरा लग रहा है !ʹ – ऐसा अगर सोचते और बेवकूफी थोड़ी साथ दे देती तो सत्यानाश कर देते अपना। नहीं, यह उनकी करूणा-कृपा है।
हम अपना दोष खुद नहीं निकाल सकते तो उन निर्दोष-हृदय को कितना नीचे आना पड़ता है हमारा दोष देखने के लिए और हमारे दोष को निकालने के लिए उनको अपना हृदय ऐसा बनाना पड़ता है। वहाँ क्रोध नहीं है, क्रोध बनाना पड़ता है। वहाँ अशांति नहीं है, अशांति लानी पड़ती है उनको अपने हृदय में। यह उनकी कितनी करूणा-कृपा है ! वहाँ झँझट नहीं है फिर भी तेरे-मेरे का झंझट उनको लाना पड़ता है – “भाई, तुम आये ? कब आये ? कहाँ से आये ?…..” अरे, ʹसारी दुनिया मिथ्या है, स्वप्न है, तुच्छ है, ब्रह्म में तीनों काल में सृष्टि बनी नहींʹ, ऐसे अनुभव में जो विराज रहे हैं वे जरा-जरा सी बात में ध्यान रख रहे हैं, जरा-जरा बात सुनाने में भी आगे-पीछे का, सामाजिकता का ध्यान रख रहे हैं, यह उनकी कितनी कृपा है ! कितनी करूणा है !
गुरु में स्थिति हो जाय तो पता चले कि ʹअरे, हम कितना अपने-आपको ठग रहे थे !ʹ हम अपनी मति-गति से जो माँगेंगे…. जैसे खिलौनों में खेलता हुआ बच्चा माँ-बाप से या किसी देने वाले से क्या माँग सकता है ? कितना माँग सकता है ? ʹयह खिलौना चाहिए, यह फलाना-फलाना चाहिए…ʹ जब वह बुद्धिमान होता है तो समझता है कि पिता की जायदाद और पिता की जमीन-जागीर सबका अधिकारी मैं था। मैं केवल चार रूपये के खिलौने माँग रहा था, ये-वो माँग रहा था। वास्तव में पिता की सारी मिल्कियत और पिता, ये सब मेरे हैं। ऐसे ही ʹगुरु का अनुभव और गुरुदेव वास्तव में मेरे हैं। ब्रह्मांड और ब्रह्मांड के अधिष्ठाता सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मा मेरे हैंʹ-ऐसा अनुभव होगा और गुरु कृपा छलकेगी।
गुरु की स्थिति को शिष्य समझे, गुरु की स्थिति जितनी समझेगा, उतना वह महान होगा। सोचो, वे साधु पुरुष कहाँ रहते हैं ? शरीर में ? क्या वे शरीर को ʹमैंʹ मानते हैं ? अथवा अपने को क्या मानते हैं ? वे जैसा अपने को जानते हैं और जहाँ अपने-आप में स्थित हैं, वहाँ जाने का प्रयत्न करो। गुरु जाति में, सम्प्रदाय में, मत-पंथ में स्थित हैं क्या ?
नहीं, गुरुजी स्थित हैं अपने-आप में, अपने स्वरूप में, अनंत ब्रह्मांडों के अधिष्ठान परब्रह्मस्वरूप में। ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति को समझेंगे त्यों-त्यों हृदय निर्दोष हो जायेगा, आनंदित और ज्ञानमय हो जायेगा। ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति को समझेंगे, त्यों हृदय मधुर बनता जायेगा और व्यवहार करते हुए भी निर्लपता का आनंद आने लगेगा। ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति समझेंगे, त्यों उनके लिए हृदय विशाल होता जायेगा, त्यों-त्यों हृदय आदर और महानता से भरता जायेगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 239
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