Yearly Archives: 2015

आत्मज्ञान पाने तक सदगुरु करते हैं मार्गदर्शन


भगताँ महाराज नाम के एक ब्राह्मण जोधपुर राज्य के फूलमाल गाँव में रहते थे। एक बार एक महात्मा उनके घर पधारे और उनकी गर्भवती पत्नी को देखकर बोलेः “देवी ! तुम्हारे गर्भ में संत का वास है।” समय बीतने पर सुंदर-सलोने शिशु का जन्म हुआ पर पति-पत्नी चिंतित रहने लगे कि कहीं बेटा बड़ा होने पर साधु न हो जाय ! बेटे का नाम टीकम रखा। नन्हा टीकम रात में सोते समय पिता जी से पूछताः “पिता जी ! भगवान कहाँ रहते हैं ? वे कैसे हैं ? हमें दिखते क्यों नहीं ? आदमी मरता क्यों है ? मरकर भगवान के पास जाता है या और कहीं ? भगवान के दर्शन कैसे होते हैं ? क्या मुझे भी हो सकते हैं ?”

पिता जी एक प्रश्न का उत्तर देते तो दूसरा तैयार रहता। आखिर वे उत्तर देते-देते थक जाते और कहतेः “बेटा ! अब सो जा।”

टीकमः पिता जी ! आप ही कहते हैं न, कि ‘सब काम भगवान करते हैं। उनकी मर्जी के बिना कुछ नहीं होता।’ मुझे भगवान अभी सुला नहीं रहे हैं।”

पिता जी झुँझलाकर कहतेः “अच्छा महात्मा ! भगवान जब सुलायें तो सोना, मुझे सोने दे, भगवान मुझे सुला रहे हैं।” पिता जी सो जाते पर टीकम पड़ा-पड़ा घंटों न जाने क्या सोचता रहता।

पिता जी कभी-कभी टीकम को अपने साथ खेत पर ले जाते। खेत जोतते समय बैलों को मार पड़ने से टीकम रो पड़ता।

टीकमः “पिता जी ! जैसे आपके सिर में दर्द होता है तब आपसे काम नहीं होता, ऐसे ही शायद आज बैलों के भी सिर में दर्द हो रहा होगा, तभी वे चल नहीं पा रहे हैं। उन्हें खोल के विश्राम करने दीजिये।”

बेटे की इस प्रकार की बातें सुनकर पिता के कानों में महात्मा का बात गूँजने लगती। ‘कहीं बेटा साधु न हो जाय’ – इसी चिंता-चिंता में माता-पिता संसार से चल बसे।

अब घर का सारा बोझ टीकम के बड़े भाई रेवती व उनकी धर्मपत्नी पर पड़ गया। रेवती की पत्नी बहुत महत्वाकांक्षी स्वभाव की थी, वह टीकम को हर समय काम में जोतती रहती। टीकम जो भाभी कहती सब करते पर करते अपने ढंग से थे। खेत जोतते तो थोड़ी-थोड़ी देर  में बैलों को एक ओर खड़ा कर विश्राम करने देते व स्वयं फावड़े से खेत की गुड़ाई करने लगते।

खेत में पानी देते तो पहले चींटियों और कीड़े-मकोड़ों को बीनकर किसी ऊँचे स्थान पर रख देते। एक बार खेत में पानी देते समय उन्हें एक-दो जगह कीड़ों के बिल दिखे। उन्हें पानी से बचाने के लिए वे बिल के चारों ओर मिट्टी की मेंड़ बाँधने लगे। ऐसा करने में कुछ पौधे उखड़ गये। इतने में भाभी वहाँ आ गयी, उसने दाँत पीसते हुए कहाः “महात्मा ! ये क्या कर रहे हो ? सिंचाई कर रहे हो कि कीड़े-मकोड़े पाल रहे हो ? ढोंगी कहीं के ! खाने को चाहिए मनभर, काम करने को नहीं रत्तीभर ! यही सब करना है तो ढोंगी साधुओं में जा मिलो।”

टीकम ने आदरपूर्वक भाभी को प्रणाम किया और प्रभु की खोज में निकल पड़े। घूमते-घामते वे एक संन्यासी के आश्रम में जा पहुँचे और संन्यासी के निर्देशानुसार ध्यान-धारणा में लग गये। साधना में कुछ अनुभव हुआ किंतु आत्मतृप्ति न हुए वे बेचैन रहने लगे।

एक दिन टीकम को स्वप्न में एक महात्मा के दर्शन हुए। वे बोलेः “वत्स ! मैं तुम्हें पहले से जानता हूँ। तुम गर्भ में थे, तभी मैंने तुम्हारी माँ को तुम्हारे साधु होने की सूचना दे दी थी। तुम पिछले जन्म में ज्ञानी भक्त थे लेकिन ज्ञान के अभिमान के कारण तुम्हारे कुछ भोग शेष रह गये थे इसलिए तुम्हारा यह जन्म हुआ है। तुम पुष्कर चले जाओ और मेरे शिष्य परशुराम देव से दीक्षा ले लो।”

जब तक शिष्य आत्मज्ञान न पा ले, तब तक सदगुरु पीछा नहीं छोड़ते। कैसी है महापुरुषों की करुणा-कृपा !

पुष्कर पहुँचकर उन्होंने परशुराम देवाचार्य जी से अपनी शरण में रखने की प्रार्थना की। समर्थ गुरु से दीक्षा मिलने के बाद उनका अंतरात्मा का रस उभरा और वे लक्ष्य की ओर तीर की तरह चल पड़े। वे भगवान के भजन-चिंतन के सिवा न और कुछ करते और न उनके गुणगान के सिवा कुछ कहते-सुनते। यदि कोई कुछ और कहता तो कहतेः “भाई तत्त्व की बात कहो न ! तत्त्व का भजन छोड़ कुछ भी सार नहीं है।” इसीलिए उनका नाम तत्त्ववेत्ता पड़ गया।

एक बार उनके संन्यासी गुरु की उनसे भेंट हो गयी। उन्होंने पूछाः “बेटे ! तुम मेरे पास से क्यों चले आये ? कहाँ कह रहे हो ?”

उन्होंने परशुराम देवाचार्य जी से दीक्षा समेत सारा वृत्तान्त कह सुनाया। संन्यासी नाराज हुए। जब टीकम जाने लगे, तब उन्होंने एक घड़ा जल से भरकर देते हुए कहाः “इसे अपने नये गुरु को देना।”

टीकम ने घड़ा लाकर परशुराम जी के सामने रखा और सारी बात कह सुनायी। परशुराम जी ने घड़े में बताशे डाल दिये और तत्त्ववेत्ता जी से कहाः “अब इसे संन्यासी जी को दे आओ।”

वे संन्यासी के पास पहुँचे  और कहाः “गुरु जी ने इसमें बताशे डालकर वापस भेजा है। आपका जैसा प्रश्न था, वैसा ही उत्तर है।”

संन्यासी आश्चर्य में पड़ गयेः “बताओ, तुम क्या समझे ?”

तत्त्ववेत्ताचार्यः “आपने पानी का घड़ा भेजकर गुरु जी की परीक्षा लेनी चाही थी कि वे अगर मेरे मनोभाव को समझ गये तो निश्चित ही उच्चकोटि के महात्मा होंगे। आपके कहने का आशय यह था कि ‘मैंने तो टीकम के घट’ को विशुद्ध ज्ञान से ऊपर तक भर दिया था। उसमें कसर क्या रह गयी थी जो आपने उसे शिष्य बनाया ?’ उन्होंने मीठे पानी का घड़ा भेजकर उत्तर दिया कि आपने जो  ज्ञानोपदेश किया था, वह फीका और स्वादहीन था। मैंने उसको तीनों योगों की त्रिवेणी के सर्वोत्तम मधुर रस का पुट देकर उसे मधुरतम  बना दिया।”

संन्यासी ने गद्गद होते हुए कहाः “वत्स ! मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया। धन्य हैं तुम्हारे गुरुदेव और धन्य हो तुम सामर्थ्यवान गुरु के सामर्थ्यवान शिष्य !”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 271

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स्वतंत्रता दिवस पर पूज्य बापू जी का संदेश षड्यंत्रों से बचें, संयमी, साहसी और बुद्धिमान बनें


(15 अगस्त 1999 को दिया गया संदेश)

भारतवासियों में हनुमान जी जैसा बल-वीर्य, साहस, सेवाभाव और संयम आये। जब तक साहस, सेवा और संयम नहीं आयेंगे, तब तक एक ठग से, एक शोषक से बचेंगे तो दूसरे शोषक आकर शोषण करेंगे। होता भी ऐसे ही है। पहले शोषक राजाओं से बचें तो अंग्रेज शोषक आ गये, अंग्रेज शोषकों से बचे थोड़े बहुत तो दूसरे आ गये। जब तक बल-वीर्य, साहस, संयम, सामर्थ्य नहीं होता, तब तक आजादी की बात पर भले खुशी मना लें लेकिन हम शोषित होते जा रहे हैं।

इसलिए 15 अगस्त का यह संदेश है कि स्वतंत्रता दिवस की खुशियाँ मनानी हैं तो भले मना लो लेकिन खुशी मनाने के साथ खुशी शाश्वत रहे, ऐसी नजर रखो। इसके लिए देश को तोड़ने वाले षड्यंत्रों से बचें, संयमी और साहसी बनें, बुद्धिमान बनें। अपनी संस्कृति व उसके रक्षक संतों के प्रति श्रद्धा तोड़ने वालों की बातें मानकर अपने देश की जड़ें खोदने का दुर्भाग्य अपने हाथ में न आये। बड़ी कुर्बानी देकर आजादी मिली है। फिर यह आजादी विदेशी ताकतों के हाथ में न चली जाय, उसका ध्यान रखना ही 15 अगस्त के अवसर पर संदेश है।

एक आजादी है सामाजिक ढंग की, दूसरी आजादी है जीवात्मा को परमात्मा प्राप्ति की। दोनों प्रकार की आजादी प्राप्त कर लें। इसके लिए शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक बल की आवश्यकता है इसलिए शरीर स्वस्थ रहे, मन प्रसन्न रहे और बुद्धि में ज्ञान और ध्यान का प्रकाश बना रहे – ये तीनों चीजें आवश्यक हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 5, अंक 271

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Rishi Prasad 270 Jun 2015

संत की दयालुता और प्रकृति की न्यायप्रियता


एक बार अक्कलकोट (महाराष्ट्र) वाले श्री स्वामी समर्थ जंगल में एक वृक्ष के नीचे आत्मानंद की मस्ती में बैठे थे। आसपास हिरण घास चर रहे थे। इतने में कुछ शिकारी आ गये। उन्हें देखते ही हिरण संत की शरण में आ गये। संत ने प्रेम से हिरणों को सहलाया। उनमें हिरण-हिरणी के अलावा उनके दो बच्चे भी थे। स्वामी जी ने हिरण दम्पत्ति को पूर्वजन्म का स्मरण कराते हुए कहाः “अरे ! तुम लोग पुर्वजन्म में गाणगापुर (कर्नाटक) में ब्राह्मण थे। यह हिरणी तुम्हारी नारी थी, तुम्हारा भरा पूरा घर था, लेकिन तुमने संतों को सताया था, उनकी निंदा की थी इसलिए तुम्हें इस पशुयोनि में जन्म मिला। जाओ, अब आगे कभी ऐसी भूल मत करना।” हयात संतों से जितना हो सके लाभ ले लेना चाहिए। उनका लाभ न ले सकें तो कम-से-कम उन्हें या उनके भक्तों को सताने का महापाप तो नहीं करना चाहिए। अन्यथा पशु आदि हलकी योनियों में जाना पड़ता है।
प्रकृति न्यायप्रिय होती है। उसका नियम है संत के निंदक को सज़ा। प्रकृति सज़ा देने में किसी को भी नहीं छोड़ती। आज नहीं तो कल, संतों के अपमान का फल दे ही देती है। अतः कभी भूलकर भी किसी संत महापुरुष का अपमान नहीं करना चाहिए। उनकी निंदा, आलोचना करने वाला अपने तथा अपने परिवार वालों को दुःखों और परेशानियों में ही डालता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2015, पृष्ठ संख्या 28, अंक 270
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