बाहर.. कुटिया के बाहर एक अलख जगी भिक्षाम देहि! भिक्षाम देहि! कलावती ने सुना तो हैरान सी हुई कि हम तो स्वयं भिखारियों से बदत्तर है फिर हमसे भिक्षा कौन मांग रहा है? बाहर आकर देखा तो वही साधुजन उसकी दहलीज़ पर खड़े अलख जगा रहे थे।
कलावती की सब कलाएं तो रूप ढलने के साथ ही ढल चुकी थी, अब तो वह छह बच्चों की माँ भर रह चुकी थी, अकड़ खो चुकी थी, अदा खो चुकी थी बस बची थी तो अपने ही हाथो से कालिख पुती जिंदगी। अब तो कोई अभिमान भी नही था। जब साधुओं को अपने द्वार पर भिक्षा मांगते पाया तो उसे लगा कि शायद उसका भाग्य ही उसका परिहास कर रहा है क्योंकि पहली बात तो यह है कि वह उधम इस लायक कहां कि अपनी अपवित्र हाथो से उन पवित्र आत्माओं को भोजन कराए। दूसरा उसके पास इतना अनाज भी कहाँ था जो उन्हें वह खिलाती।
फ़टी सी साड़ी का पल्लु अपने हाथों से खिंचती हुई वह बोली क्षमा करें महाराज इतना भोजन मेरे यहाँ कहां कि आप सबको तृप्त कर सकूँ? साधु मुस्कुराए- माते! हम साधुओ का क्या जितना मिल जाये उसी में सब्र कर लेगें।
कलावती ने सोचा कि शायद प्रभु ने उसे उसके पास इन साधुओं को पाप धोने के लिए एक अवसर के रूप में भेजा है सो जैसे तैसे उसने यथा योग्य अन्न से साधुओं को तृप्त कराया तभी अजामिल भी कुटिया में पहुंच गया और साधुओं को देख इतना क्रोधित हुआ कि साधुओं का दिल भर के अपमान किया प्रतिक्रिया स्वरूप साधु केवल मुस्कुराये और अजामिल से भोजन के बाद दक्षिणा के मांग की।
अजामिल बोला- ये जो आपके पास आसन, दण्ड, कमण्डलु और चिमटा है उसे तुम दक्षिणा समझ लो मेरी तरफ से, मैंने तुम्हारे प्राण लेकर ये छिना नही यही दक्षिणा है, फिर भी साधुओं के आग्रह पर दक्षिणास्वरूप में अपने पुत्र का नाम नारायण रखने के लिए अजामिल ने हामी भरी साधु चले गए।
समय आया कलावती को पुत्र हुआ और अजामिल ने पत्नी के दबाव में आकर बेटे का नाम नारायण रखा। पता नही यह क्या लीला थी कि अजामिल अपने इस सातवे पुत्र को इतना प्यार करता था कि दिन भर हर बात पर उसे ही पुकारता नारायण ओ नारायण लेकिन विषयो का ग्रास बना अजामिल का तन खोखला तो हो ही चुका था और इस खोखले तन को अब बीमारी भर रही थी।
दिन दिन खत्म होते अजामिल का आखिरी दिन भी आ गया परलोक से उसे लेने यमदूत चल पड़े। लेकिन जब मृत्यु भय से तड़पती अजामिल ने फिर से अपने पुत्र नारायण को नारायण ओ नारायण कहकर पुकारा तो साधुओं के आशीर्वाद से उसके पुराने संस्कार पुनः जागृत हो उठे।
अंतकाल में उसकी आंखों के सामने गुरुदेव का वही दिव्य आश्रम घुमने लगा जहां कभी वह शिक्षित दीक्षित हुआ था और फिर सामने आ गया वही मुस्कुराता सा अलौकिक चेहरा जिसे छोड़कर वह किसी और के मुस्कुराहट के पीछे लग गया था। गुरुदेव का दर्शन होते ही अजामिल को श्वास-श्वास में रमण करने वाले नारायण का स्मरण हो उठा।
अजामिल के यूँ सुमिरन करते ही यमदुत पीछे हट गए और विष्णु लोक से देवदूत सामने उपस्थित हो उठे। अजामिल को यमदूत स्पर्श तक न कर सके। अकाल मृत्यु टल गई और अजामिल की जीवन अवधि बढ़ गई।
परन्तु अब अजामिल के नेत्र पूर्णतः खुल चुके थे वह अपना शेष जीवन तपस्या पूर्ण व्यतीत करते हुए उच्च गति का अधिकारी बना। लेकिन यह सारी घटना के पीछे फिर उसी सत्ता की शास्वत करुणा दिखी जिसे सद्गुरु कहकर संबोधित करते है। अजामिल बेहद ही अधमता तक गया, अत्यंत पाप की पराकाष्ठा तक गया लेकिन उसके गुरुदेव उसे तब भी न भूले औऱ सन्तो को निमित्त बनाकर उसे नारायण शब्द से ऐसा जोड़ा कि अंतिम क्षणों में इसी नारायण शब्द के बहाने वह अंदर के नारायण से जुड़ा। यह भी गुरु का ही संकल्प है कि मेरे शिष्य का कल्याण हो फिर निमित्त कुछ भी हो।
एक कल्पित कथा है कहते हैं कि एक बार एक व्यक्ति दूध लेने दुकान पर गया दूध लेकर हंसी खुशी वापस लौटा।उसकी पत्नी ने उस दुध को गर्म किया औऱ फिर अपने पति को पीने के लिए दे दिया। दूध पीने के कुछ ही देर बाद पति की मृत्यु हो गई। पत्नी जोर- जोर से रोने चिल्लाने लगी अड़ोसी-पड़ोसी सब इकठ्ठे हुए। मृत्यु का कारण पता चलने पर सभी डंडे लेकर दुकानदार के पास चले गए उसे खूब मारा पीटा। इधर यमदूत उस व्यक्ति की आत्मा को लेकर यमराज के पास पहुंचा और कहा कि हे यमदेव इसके मृत्यु का दोषी किसे ठहराया जाय? क्या उस दुकानदार को जिसने उसे जहर भरा दूध दिया।
यमराज ने कहा- उस बेचारे का क्या दोष उसे तो पता भी नही था कि दूध में जहर है वह जहर तो सांप के मुँह से उस दूध में गिरा था। यमदूत ने कहा- फिर सांप इस व्यक्ति के मृत्यु का दोषी हुआ यमराज ने कहा- नही सांप तो चील के पंजो में दबा था। उसने जानकर तो विष को दूध में घोला नही।
यमदूत बोला- फिर तो चील इसकी दोषी है, नही.. चील तो अपना शिकार ले जा रही थी विष और दूध से उसका क्या लेना देना। तो देव फिर दोषी कौन है? यमराज ने कहा- इस व्यक्ति के स्वयं के कर्म इसके कर्म की गठरी ने ही इसकी मृत्यु के लिए यह मंच रचा दुकानदार, सर्प, चील आदि तो सब केवल निमित्त मात्र बने।
ठीक इसी तरह आज यदि हमारे जीवन मे भी कोई दुख,संकट है तो उसका कारण हमारे कर्म संस्कार है और इन कर्म संस्कारो को नष्ट किये बिना दुख नष्ट नही हो सकते शास्त्र कहते है कि-
*ज्ञान अग्नि सर्वकर्माणि भस्मस्यात कुरुते अर्जुनह*
अर्थात केवल सद्गुरु के ज्ञान की अग्नि ही ऐसी अग्नि है जो कर्मो के बीज को नाश कर सकती है अन्यत्र कुछ नही।
अजामिल की कथा हमें यह अमर सन्देश छोड़ गई कि हम सभी शिष्यो के लिए वह एक भूल, जो कभी शिष्य को भूलकर भी नही करनी है वह है गुरु आज्ञा की अवहेलना।