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यह बात उस समय की है जब बोधिधर्म भारत से चीन गये हुए थे…


रात्री को निद्राधीन होने से पहले अन्तर्मुख होकर शिष्य को निरीक्षण करना चाहिए कि गुरु की आज्ञा का पालन कितनी मात्रा में किया है।शिष्य के हृदय के तमाम दुर्गुण रूपी रोग पर गुरुकृपा सबसे अधिक असरकारक, प्रतिरोधक एवं सर्वार्त्रिक औषध है।

भगवान शिव जी कहते है,

दुर्लभं त्रिषु लोकेषु, तत शृणुस्व वदाम्यहं।
गुरुं बिना ब्रह्म नान्यत सत्यं-2 वरानने।।

भगवान शिव जी के इस कथन के प्रथम चरण में गुरु और शिष्य की अनन्यता, एकात्मता और तादात्म्यता हैं। गुरु और शिष्य अलग-2 नहीं होते, बस उनके शरीर अलग-2 दिखते भर है। उनकी अन्तरचेतना आपस में घुली-मिली होती है।

सच्चा शिष्य गुरु का अपना स्वरूप होता है, उसमें सद्गुरु की चेतना प्रकाशित होती है। शिष्य के प्राणों में गुरु का तप प्रवाहित होता है। शिष्य के हृदय में गुरु की भावनाओं का उद्रेक होता है। शिष्य के विचारों में गुरु का ज्ञान प्रस्फुटित होता है। ऐसे गुरुगतप्राण शिष्य के लिए कुछ भी अदेय नहीं होता । सद्गुरु उसे दुर्लभतम तत्व एवं सत्य बनाने के लिए सदा सर्वदा तैयार रहते हैं। शिष्य के भी समस्त क्रियाकलाप अपने सद्गुरु की अन्तरचेतना की अभिव्यक्ति के लिए ही होते है।

महादेव शिव के कथन का अंतिम सत्य यह है कि गुरु ही ब्रह्म है। यह संक्षिप्त कथन बड़ा ही सारभूत है। इसे किसी बौधिक क्षमता से नहीं भावनाओं की गहराई से समझा जा सकता है। इसकी सार्थक अवधारणा के लिए शिष्य की छलकती भावनाएँ एवं समर्पित प्राण चाहिए।

जिसमें यह पात्रता है वह आसानी से भगवान भोलेनाथ के कथन का अर्थ समझ सकेगा, ‘गुरु ही ब्रह्म है’ । जो गुरुतत्व को समझ सका, वही ब्रह्मतत्व का भी साक्षात्कार कर पायेगा। सद्गुरु कृपा से जिसे दिव्यदृष्टि मिल सकी, वही ब्रह्म का दर्शन करने में सक्षम हो सकेगा।

इस अपूर्व दर्शन में द्रष्टा, दृष्टि एवं दर्शन सब एकाकार हो जायेंगे। अर्थात शिष्य, सद्गुरु एवं ब्रह्मतत्व के बीच सभी भेद अपने आप ही मिट जायेंगे। यह सत्य सूर्यप्रभाव की तरह उजागर हो जायेगा कि सद्गुरु ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही अपने सद्गुरु के रूप में साकार है।

भगवान शिव जी कहते हैं कि, सद्गुरु की कृपादृष्टि के अभाव में

वेदशास्त्र पुराणानि इतिहासादी कानि च।
मंत्र-यंत्रादि विद्याश्च स्मृतिर उच्चाटनादिकं।।

शैवशाक्ता गमादिनी अन्यानी विविधानीच ।
अपभ्रंश करानीह जीवानि जीवानां भ्रान्तचेतसां।।

वेद,शास्त्र, पुराण, इतिहास, स्मृति, मंत्र, यंत्र, उच्चाटन आदि विद्याएँ ; शैव, शाक्त, आगम आदि विद्याएँ केवल जीव के चित्त को भ्रमित करनेवाली सिद्ध होती है।

विद्या कोई हो लौकिक या आध्यत्मिक, उसके सारतत्व को समझने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। विद्या के विशेषज्ञ गुरु ही उसका बोध कराने में सक्षम और समर्थ होते हैं। गुरु के अभाव में अर्थवान विद्याएँ भी अर्थहीन हो जाती है। इन विद्याओं के सार और सत्य को ना समझ सकने के कारण जीव को भटकन ही पल्ले पड़ती है।

उच्चस्तरीय तत्वों के बारे में पढ़े गये पुस्तकीय कथन केवल मानसिक बोझ बनकर रह जाते हैं। भारभूत हो जाते हैं। जितना ज्यादा पढ़ो, उतनी ही ज्यादा भ्रान्तियाँ घेर लेती है। गुरु के अभाव में काले अक्षर जिंदगी में कालिमा ही फैलाते हैं। हाँ, यदि गुरुकृपा साथ हो तो ये काले अक्षर रोशनी के दिये बन जाते हैं।

चीन में एक संत हुए हैं शिन्हुआ। उन्होंने काफी दिनों तक साधना की। देश-विदेश के अनेक स्थानों का भ्रमण किया। विभिन्न शास्त्र और विद्याएँ पढ़ी। परन्तु चित्त को शान्ति न प्राप्त हुई। वर्षों के विद्याभ्यास के बावजूद अविद्या की भटकन एवं भ्रांति यथावत बनी रही।

उन दिनों शिन्हुआ को भारी बैचेनी थी। अपनी बैचेनी की इन्हीं दिनों में उनकी मुलाकात बोधिधर्म से हुई। बोधिधर्म उन दिनों भारत से चीन गये हुये थे। बोधिधर्म के सान्निध्य में उनके सम्पर्क के एक पल में शिन्हुआ की सारी भ्रान्तियाँ, समूची भटकन समाप्त हो गई। उनके मुखपर एक ज्ञान की अलौकिक दीप्ति छा गई। बात अनोखी है! जो सालोंसाल तक अनेकानेक विद्याओं को पढ़कर न हुआ, वह एक पल में सद्गुरु के सान्निध्य से हो गया।

अपने जीवन की इस अनूठी घटना का उल्लेख शिन्हुआ ने अपने संस्मरणों में किया है। उन्होंने अपने सद्गुरु बोधिधर्म के वचनों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि विद्याएँ एवं शास्त्र तो दिये कि चित्र भर है। इनमें केवल दिये बनाने की विधि भर लिखी है।

इन चित्रों को, विधियों को कितना भी पढ़ा जाय, रटा जाय, इन्हें अपने छाती से लगाकर रखा जाय, परन्तु थोड़ा भी फायदा नहीं होता। दिये की चित्र से रोशनी नहीं होती। अँधेरा जब गहराता है तो शास्त्र और विद्याओं में उल्लेखित दिये के चित्र थोड़ा भी काम नहीं आते। मन वैसा ही तड़पता रहता है। लेकिन सद्गुरु से मिलने जैसे जलते हुए रोशनी को चारों ओर फैलाते हुए दिये से मिलना है।

शिन्हुआ ने लिखा है कि, उनका अपने गुरु बोधिधर्म से मिलना ऐसे ही हुआ, जैसे जलते हुए दिये से मिलना हुआ। वह कहते हैं कि प्रकाशस्त्रोत के सन्मुख हो तो भला भ्रान्तियों एवं भटकनो का अँधेरा कितने देर तक टिका रह सकेगा?

यह गणित का प्रश्नचिन्ह है। इसका जबाब जोड़-घटाव, गुणा-भाग से नही, सद्गुरुकृपा की अनुभूति में है। जीवन में यह अनुभूति आये तो सभी विद्याएँ, सारे शास्त्र अपने आप ही अपना रहस्य खोलने लगते हैं। शास्त्र और पुस्तकें न भी हो तो भी गुरुकृपा से तत्त्वबोध हो ही जाता है। गुरुकृपा की महिमा ही ऐसी है।

अरे! यह क्या अजीब आज्ञा दे गये आचार्य चाणक्य चंद्रगुप्त को, पूरी घटना पढ़ें…


उत्तम शिष्य पेट्रोल जैसा होता है। काफी दूर होते हुए भी गुरु के उपदेश की चिंगारी को तुरंत पकड़ लेता है। दूसरी कक्षा का शिष्य कपूर जैसा होता है। गुरु के स्पर्श से उसकी अंतरआत्मा जागृत होती है और वह उसमें आध्यत्मिकता की अग्नि को प्रज्वलित करता है।

तीसरी कक्षा का शिष्य कोयले जैसा होता है। उसकी अंतरआत्मा को जागृत करने में गुरु को बहुत तकलीफ उठानी पड़ती है। चौथी कक्षा का शिष्य केले के तने जैसा है। उसके लिए किये गये कोई भी प्रयास काम नहीं लगते। गुरु कितना भी करे, फिर भी वह ठंडा और निष्क्रिय रहता है।

हे शिष्य! सुन, तू केले के तने जैसा मत होना। तू पेट्रोल जैसा शिष्य बनने का प्रयास करना अथवा तो कम से कम कपूर जैसा तो अवश्य बनना।

महर्षि चाणक्य ने भारत को सिकंदर के शासन से मुक्त कराके चंद्रगुप्त मौर्य को राज्यपद पर आसीन करा दिया। चंद्रगुप्त को रहने के लिए एक बड़े भव्य महल का निर्माण शुरू हुआ। सब सुविधाओं से परिपूर्ण उस महल के बनने के लिए अथाह सम्पत्ति और समय लगाया गया।

बहुत वर्षों बाद जब महल बनकर तैयार हुआ तब चंद्रगुप्त ने अपने गुरुदेव चाणक्य से निवेदन किया कि कृपया प्रथम आप अपने श्रीचरणों से महल को पवित्र कीजिए। गुरुदेव ने महल का निरीक्षण किया और बाहर आकर चुपचाप खड़े हो गये।

चंदगुप्त ने पूछा, “कैसा लगा गुरुदेव? इस भव्य महल के निर्माण हेतु बहुत सम्पत्ति खर्च हुई है। बहुत समय लगा है। आपको कैसा लगा?”

गुरु चाणक्य ने कहा कि, “चंद्रगुप्त! अभी इस महल को जलाकर राख कर दो।” यह कहकर चाणक्य अपनी कुटीर की ओर अग्रसर हो गये।

कही मैने गलत तो नहीं सुना? इतना आलीशान महल और इसे जला दो! गुरुदेव यह कैसा आदेश देकर चले गये।

अब यहाँ शिष्य के समक्ष एक तो अपने मन की खुशियाँ थी तो दूसरी ओर गुरु की अटपटी लगने वाली कठोर आज्ञा थी। चुनाव बड़ा मुश्किल था। परन्तु चंद्रगुप्त ने गुरु की आज्ञा का चयन किया और महल को जला दिया। कुछ ही देर में महल जलकर राख हो गया। परन्तु महल के राख में कुछ मनुष्य के जले हुए शव भी प्राप्त हुए।

चाणक्य ने चंद्रगुप्त के पूछने पर बताया कि जब महल में निरीक्षण हेतु गया था तब मैंने चींटियों के झुंड देखे अलग-2 स्थानों पर । तभी मैं समझ गया कि इस महल के नीचे दुश्मनों ने गुप्त सुरंग बनाई है। ताकि इस महल में तुम्हारी हत्या कर सके।

यह कथा हर साधक की जीवन की ओर इंगित करती है। शिष्य भी अपने समय व शक्ति की सम्पत्ति लगाकर अपने मान्यताओं के भव्य महल का निर्माण करता है और उसको देखकर वह बड़ा ही प्रसन्न होता है। परन्तु जब साधक की मान्यताओं के महल में सद्गुरु का प्रवेश होता है, तब सद्गुरु बड़ी ही सूक्ष्मता से निरीक्षण करते हैं और शिष्य को आदेश देते हैं कि अपने इस महल को जला दो।

परन्तु साधक यहाँ शंकित होता है। संशय की गर्त में गोते खाता है। फिर भी करुणामय गुरुदेव साधक को बार-बार कहते है और कभी पुचकारकर कहते हैं तो कभी डाँटकर कहते हैं।

जो शिष्य गुरु की आज्ञा मानकर अपने मान्यताओं के महल में ज्ञानाग्नि लगाकर दग्ध कर देता है। उसका दुश्मनों से रक्षण हो जाता है। यहाँ अपनी मान्यताओं में अहंकाररूपी दुश्मन बड़ा ही गुप्त सुरंग बनाकर बैठा होता है। जो गुरु के ज्ञान व गुरु की भक्ति के अग्नि से ही वह दग्ध होता है।

प्रत्येक साधक को विचारणीय है , कि सद्गुरु जब हमें आदेश देंगे कि अपने महल को भस्म कर दो तब हम क्या करेंगे? और दूसरी बात कि क्या अबतक सद्गुरु ने हमें आदेश दिया ही नहीं? …या हमने अबतक उनके आदेशों का पालन किया ही नहीं।

एक नृशंस व्याध ने कैसे पाया ऋषियों में अग्रगण्य स्थान ?


वराह पुराण में एक कथा आती है । पूर्वकल्प में आरूणी नाम के एक तपस्वी ऋषि देविका नदी के तट पर आश्रम बनाकर रहते थे । एक बार स्नान के बाद जब वे संध्या, जप कर रहे थे तब एक व्याध उनके वस्त्र छीनने और उन्हें मारने के विचार से आया । लेकिन ऋषि का दर्शन करते ही उसकी बुद्धि बदल गयी, वह कहने लगाः ”ब्रह्मण ! आपको देखते ही मेरी क्रूर बुद्धि चली गयी । अब आपके पास रहकर मैं भी तप करना चाहता हूँ ।”

ब्रह्मघाती समझकर मुनि ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया, फिर भी वह व्याध मन-ही-मन उन्हें गुरु मानते हुए वहीं रह के साधना करने लगा ।

एक दिन मुनि स्नान हेतु नदी के जल के भीतर गये तब एक बाघ मुनि को मारने के लिए उद्यत हुआ । जल में निमग्न मुनि को खाने की इच्छा से बाघ जैसे ही मुनि की तरफ बढ़ा वैसे ही व्याध ने बाघ को मार डाला । बाघ के व्याकुल शब्द को सुनकर मुनि के मुँह से ‘ॐ नमो नारायणाय ।’ यह मंत्र निकल गया । प्राण निकलते समय केवल इस मंत्र को सुन लेने से बाघ एक दिव्य पुरुष के रूप में परिणत हो गया । मुनि के पूछने पर उसने अपने पूर्वजन्म की बात बताते हुए कहाः “मैं वेद, धर्मशास्त्र ज्ञाता राजा दीर्घबाहु था । मैं घमंड के कारण प्रायः ब्राह्मणों, संतों-महापुरुषों का अनादर, अपमान करता था, जिससे क्रुद्ध होकर उन्होंने मुझे बाघ होने का शाप दिया । जब मैंने उनके पैरों पर गिरकर क्षमा माँगी तब मेरे उद्धार की बात बताते हुए उन्होंने कहाः “राजन् ! प्रत्येक छठे दिन मध्याह्न काल में तुझे जो कोई मिले उसे तू खा जाना, वह तेरा आहार होगा । जब तुझे बाण लगेगा और तेरे प्राण कंठ में आ जायेंगे तब उस समय ‘ॐ नमो नारायणाय ।’ यह मंत्र तेरे कानों में पड़ेगा तब तेरा उद्धार होगा ।”

प्राण संकट में डालकर भी व्याध ने बाघ से अपने गुरु की रक्षा की । गुरु आरूणि जी प्रसन्न हुए और आशीर्वाद देते हुए कहाः “बेटा ! तुम्हारी सेवा-भक्ति से मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो ।”

व्याधः “गुरुदेव ! आप मुझ पर प्रसन्न हैं यही पर्याप्त है, और मुझे क्या चाहिए ।”

“बेटा ! पुण्यनदी में स्नान, भगवन्नाम-श्रवण व सेवा से तुम्हारा पाप नष्ट होकर अंतःकरण पवित्र हो गया है । अब तुम यहीं रहकर आगे की साधना करो ।”

शिष्य को पाठ देकर आरूणि ऋषि वहाँ से कहीं चले गये ।

गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य कर वह व्याध निराहार रहकर गुरुदेव आरूणि का ध्यान-स्मरण करते हुए तत्परता से साधना में लग गया । उसके शरीर मे केवल हड्डियाँ ही शेष रह गयी थीं पर ध्यान-भजन का तेज उसके मुख पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था ।

उसकी परीक्षा हेतु एक दिन मुनिवर दुर्वासा जी वहाँ पधारे । उन्हें देखकर व्याध ने प्रणाम किया एवं अतिथि बनने के लिए निवेदन किया । संकल्प को साकार करने का सामर्थ्य देने वाली अंतःकरण की शुद्धि, इन्द्रिय-संयम, तपोबल व्याध में कितना जागृत हुआ है यह जानने हेतु महर्षि ने जौ, गेहूँ एवं धान्य से भलीभांति सिद्ध अन्न खिलाने को कहा । व्याध चिंता में पड़ गया कि ‘इस एकांत में यह सब सामग्री कहाँ से मिलेगी ?’

इतने में एक सोने का पवित्र पात्र आकाश से गिरा । व्याध ने उसे उठा लिया और भिक्षा माँगने के लिए वह जैसे ही जंगल के निकटवर्ती नगर की ओर जाने लगा तब वृक्षों से एक के बाद एक वनदेवियाँ आयीं, जिनके हाथों में स्वर्णपात्र थे जो विविध दिव्यान्नों से भरे हुए थे । वनदेवियों ने दिव्यान्नों से भिक्षा पात्र को भर दिया । व्याध वापस आया और उसने महर्षि से चरण धोकर भोजन हेतु आसन ग्रहण के लिए प्रार्थना की ।

पुनः तपोबल की परीक्षा करने के विचार से दुर्वासा मुनि ने पैर धोने हेतु नदी में जाने के लिए असमर्थता बतायी । व्याध ने मन-ही-मन अपने गुरुदेव का स्मरण किया और देविका नदी की भी स्तुतिपूर्वक शरण ली । गुरुभक्त व्याध की सेवा सफल करने हेतु पापनाशिनी देविका नदी मुनि के आगे प्रकट हो गयी । यह देखकर मुनिवर के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने हाथ पैर धोकर व्याध के श्रद्धापूर्वक दिए हुए अन्न को ग्रहण किया । महर्षि दुर्वासा ने व्याध को ब्रह्मविद्या, वेद और पुराणों का ज्ञान प्रत्यक्ष होने का आशीर्वाद दिया और नवीन नामकरण करते हुए कहाः “तुम अब ऋषियों में अग्रगण्य सत्यतपा नामक ऋषि होओगे । अब तुम्हारा पूर्वकालीन अज्ञान भी शेष नहीं रह गया है । इस समय तुम्हारे अंतःकरण में शुद्धरूप अविनाशी परमात्मा निवास कर रहे हैं । मुने ! इस कारण तुम्हें वेद और शास्त्र भलीभाँति प्राप्त होंगे ।”

संत-दर्शन, गुरुनिष्ठा, सेवा-साधना व गुरु कृपा का कैसा दिव्य प्रभाव कि एक नृशंस व्याध ने ऋषियों में अग्रगण्य स्थान पा लिया !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 330

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